एक अरसे पहले की बात है। सैनिक स्कूल से हूँ। स्कूल में दौड़ भाग, खेल कूद और पी टी परेड से बदन चुस्त और सेहत दुरुस्त रहती थी। फिर बरसों बैठे रहने के बाद कमर 30 से 32 हुई तो मुझे चिंता सताने लगी। सोचा डम्बल शम्बल भांज के थोडा फिट हो जाऊं। गूगल देव से दिल्ली के खेल कूद सामान के दूकानदारों के पते मांगे। भाई हम ठहरे सिंगल पसली आदमी, सो अपनी शर्म और झिझक को छिपाने के लिए एक हट्टे कट्टे दोस्त को ले कर जा पहुंचे करोल बाग़ में गुलाटी स्पोर्ट्स। ये दूकान दूकान कम और गोदाम ज्यादा लगती है, शायद इसीलिए यहाँ शहर से लगभग आधे दाम में सामान मिलता है।ये मार्केटिंग के खर्चे का अतिरिक्त बोझ आपकी जेब पर नहीं डालते।अपने वजन के हिसाब से हमने सबसे हलके लड़कीनुमा डम्बल खरीद लिए। बचपन में दीपक भारती के साथ स्केटिंग सीखी थी, सो कुछ स्केट्स के पहियों पर ऊँगली घुमा के पुराने दिन ताज़ा किये।साइकिल के बाद स्केट्स ही ऐसी चीज़ थी जिसने मुझे आज़ाद परिंदे की फीलिंग्स सिखाई।
पैसे देने के लिए जैसे ही काउंटर पर पहुचे, तो एक सत्तर साल का बुजुर्ग तीसरी क्लास की किताब पढ़ रहा था। गौर से देखा तो पास ही मोरल साइंस की किताबों का ढेर लगा था। गुफ्तगू शुरू हो गई। उसने बताया कि कैसे पुराने दिनों में कसरत का रिवाज़ रहता था, कैसे बड़े बड़े मुगदल (विदेसी डम्बल के देसी महा बाप) भांजे जाते थे। "आप की बहिन बेटियों की इज्जत ट्रेन में नहीं लुटी, तो आप क्या जाने आदमी के बाजुओं में ताकत का क्या मतलब होता है" उसकी एक बात ने मुझे महीनो कुरेदा।एक बात ही बटवारे का दर्द बयान कर गई।मैं इस दर्द को समझने में शायद उम्र और अकल से बहुत छोटा हूँ।कुछ दर्द शायद सदियों में भी नहीं मिटते।
फिर बात हुई मोरल साइंस की किताबों की। "आप बड़े हो के सब पढ़ते हो,डाक्टर इंजीनियर बनते हो और बचपन की बेसिक बातें भूल जाते हो। दोस्त पड़ोसियों की मदद करना, भूखों को खाना खिलाना, कमजोर के लिए लड़ना। चाचा चौधरी और बिल्लू - पिंकी की किताबों में भी सामाजिक जिम्मेदारियों से भरी बातें होती थी, (बैटमेन में क्या है, ये मुझ गंवार से मत पूछियेगा। )
फिर बातों बातों में उसने दोनों हाथों में एक एक मुगदल लिए और आठ दस बार भांज दिए। हमने मन ही मन सोचा बुजुर्ग आदमी है, मुगदल हल्के होंगे। फिर मेरी अर्ध पारदर्शी काया पे तरस खाते हुए उसने एक मुगदल मेरे हट्टे कट्टे दोस्त को थमा दिया। मैं भौचक्का रह गया जब भांजना तो दूर, मेरा दोस्त उस मुग्दाल को दोनों हाथों से सीधा खड़ा भी न रख पाया।पुराने देसी घी का दम मुद्दतों माद देखा मैंने।कभी फुर्सत मिले तो जरूर जाइएगा गुलाटी स्पोर्ट्स (भाई इस विज्ञापन का गुलाटी ने मुझे एक भी रूपया नहीं दिया।)
भाई वो बात अरसे पहले की है, आज भी सोचता हूँ, हमारे देश में पहले अखाड़े होते थे, नाग पंचमी के दंगल मैंने बचपन में खूब देखे थे। अब नाईट शिफ्ट वाले काल सेंटर हैं। सेहत और शहर जैसे एक दुसरे के दुश्मन हैं।
इन सब से ऊपर अक्सर सोचता हूँ, और मिस करता हूँ अपनी तीसरी की मोरल साइंस की किताब को। काश उसे जवानी में दो चार बार और पढता तो एक बेहतर इंसान होता।
वैसे, आप आजकल क्या पढ़ रहे हैं?
I'm reading "I loved a street woman", Chapter 6, Page 69...
ReplyDelete- 2635(1994-2001)