Friday 5 July 2013

हुजूम और इंकलाब ...!!!

वो सर्दियों की रात थी 
अब गर्मियों के दिन हैं 
वो हुजूम जो चौक चौबारों बस अड्डों तक उठा था 
अब आराम फरमा रहा है...
मुद्दा रेप का रहा हो या लोकपाल का 
हम चिल्लाते हैं , घर से निकलते हैं 
फिर घर लौट के भूल जाते हैं 

जब फास्ट ट्रेक अदालतें महीनो लगा के 
आइन्दा सालों लगाने वाली हों 
तो क्या बेहतर नहीं कि विक्टिम 
खुद ही गुनेहगार का क़त्ल ही कर दे
गांधीवादियों से अनुरोध है कि 
अहिंसा का धर्म भेडियों पर लागू नहीं होता 


मुझे तो आदत ही है 
उस मुद्दे में नहाने की 
जिसके बासे पानी से तुम्हे बू आती है 

हम भुला दिए जाते हैं 
क्यूंकि हमें खुद भूलने की आदत है 
हुजूम में जोश होता है 
इन्किलाब में मकसद और मियाद 

मुद्दा जब छोटे और बड़े लुटेरे का हो 
तो भले छोटे को न चुने 
कम से कम 
बड़े लुटेरे के खिलाफ तो चुने 
क्यूंकि अगर तुम नहीं चुनोगे 
तो मैं तुम्हारे खिलाफ चुनूंगा 

और वो लुटेरा बड़ा ही होगा … !!!

Tuesday 19 February 2013

पोस्ट मोर्टम



"मुन्नाभाई एम् बी बी एस " पिक्चर का एक सीन बार बार याद आता है। वो सीन जिसमे माननीय मुन्नाभाई एक डेड बॉडी को डिसेक्ट करते वक्त बेहोश हो जाते हैं। मेरे कई डॉक्टर दोस्तों ने हँसते हुए बताया था कि पहले मर्तबा वो भी चक्कर खा गए थे या बेहोश हो गए थे। बाद में उनको धीरे धीरे इस प्रक्रिया की आदत पड़ गई।

15 फरवरी 2013 को जब लोग फेसबुक पर बिलेटेड हैप्पी वैलेंटाइन्स डे की शुभ कामनाएं भेज रहे थे,उस शाम श्रीमती अनुराधा शर्मा जी ने आत्महत्या कर ली। उनकी पुत्री कुमारी गीतिका शर्मा ने 5 अगस्त  2012 को आत्महत्या की थी। कुल 194 दिनों की मानसिक पीड़ा झेलने के बाद माँ ने उसी कमरे में पंखे से लटक कर जान दे दी जिस कमरे में बेटी ने आत्महत्या की थी। अपने सुसाइड नोट में वो अपने बेटे को सशक्त रहने का आशीर्वाद दे गई। किसी बाहुबली के द्वारा प्रताड़ित होने पर आत्महत्या की यह पहली घटना नहीं है।

मैं इंतज़ार करता रहा कि फेसबुक पर इस घटना की जन प्रतिक्रिया आएगी, लेकिन लगता है कि  मेरे डॉक्टर दोस्तों की तरह हम सबको इस तरह के जीवित पोस्ट मोर्टम की आदत पड़ गई है। 

दिल्ली गेंग रेप में सबने अपनी प्रतिक्रिया दी, तो इस मामले या इस तरह के अन्य मामलो में क्यूँ नहीं? शायद हम "सेलेक्टिव सरोकारी" हैं। हमको मतलब ही उस चीज़ से है, जिसमे शोर है, आवाज़ है। जहाँ प्रदर्शन है, धरना है, मीडिया है, वही आवाज़ सुनी जाती है , जहाँ ये सब न हो , वहां फेसबुक है। 

ये दिल्ली है। यहाँ जनतंत्र है, गणतंत्र है, मीडिया है, जागरूक जनता है, प्रदर्शनकारी लोग हैं, आवाज़ उठाने वाले छात्र हैं। जिस मुद्दे को तूल न मिले, उसे ये तूल दिला सकते हैं। देश में मुद्दे और घटनाएं इतनी हैं कि हर किसी की "इन टाइम " सुनवाई तो छोड़िये , सुनवाई ही होना यथार्थ से परे है। मुझे अभी तक आश्चर्य है, कि अनुराधा शर्मा जी की आत्महत्या पर प्रतिक्रिया स्तर नगण्य क्यूँ रहा।

बात महिला सशक्तिकरण की होती है, आवाज़ उठाने की होती है। मेरे गृह जिले पन्ना की उन गोंड युवतियों और महिलाओं का क्या, जिन्हें न अंग्रेजी आती है, न फेसबुक। जो बच्चा जनने के अगले दिन पेट पे कपडा बाँध कर मजदूरी को निकल पड़ती हैं। भई , कमाएंगी नहीं तो खायेंगी क्या। जिनके साथ ठेकेदारों द्वारा छेड़खानी आम बात है। रेप इत्यादि जहाँ कभी कानूनी रजिस्टरों तक नहीं पहुच पाते। इन गोंड महिलाओं को शायद अपने सच्चे हक़ के लिए अगले जनम तक का इंतज़ार करना पड़े। 


देश तरक्की कर रहा है, पर न्यायिक प्रक्रिया अभी भी धीमी है, मेरे पास आशावादी होने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं है, एक दिन लोग इतने जागरूक होंगे, इतने मर्मस्पर्शी होंगे कि हर मुद्दे को आवाज़ मिलेगी, बाहुबलियों के चलते ये आत्महत्याएं बंद होंगी।हम "सेलेक्टिव सरोकारी  " से "सर्व सरोकारी " बनेंगे।  हमको इन पोस्ट मोर्टम की आदत पड़  चुकी है, इस आदत से पीछा छुड़ाने तक मै यह बात दोहराता रहूँगा।  


Friday 4 January 2013

खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे ...

एक अजब सी खिसियाहट है ...

पिछले कई दिनों से लोगों की जागरूकता मुझे कनफुजिया रही है। अचानक लगने लगा था कि  जैसे मैं किसी नए देश में आ गया हूँ। जिसे देखो, देश हित की बातें कर रहा था, साल बीतते बीतते लोगों के मुद्दे भी बदल गए।फिर नए साल के साथ, सुर्खियाँ बदल गई, और क्रिकेट की हार सबसे बड़ा बवाल बन गई, अगर हम क्रिकेट में जीत जाते, तब भी यही हाल होना था, क्रिकेट है ही ऐसी चीज़। 

भई , तो असल मुद्दे पर आते हैं। ऐसा क्यूँ है की इस देश में कोई भी आन्दोलन ज्यादा दिन टिक नहीं पाता? क्यूँ एक बदलाव आते आते शून्य हो जाता है? क्यूँ परिवर्तन का सूर्य क्षितिज पर उदय हो कर वहीँ अस्त हो जाता है?

इस सवाल के जवाब कई सालों से तलाश रहा हूँ, कुछ उत्तर मिले हैं, सो आपसे बाँटने की जुर्रत कर रहा हूँ। यदि आप के पास कोई बेहतर विकल्प, उत्तर या सुझाव हो, तो मुझे ज़रूर बताइयेगा। हमारे देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है पापुलेशन प्रेशर। आप सोचोगे मैंने क्या शेखचिल्ली टाइप  बात कर दी? आन्दोलन की जान होते हैं देश के युवा। मुद्दा ये है कि मुझ जैसे युवा (मैं अब भी अपने आप को युवा समझने की गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहूँगा ) जो किसी आन्दोलन के ईंट पत्थर बन सकते हैं, वो रोजगार की लड़ाई में व्यस्त हैं। जनसँख्या विस्फोट के चलते हमारे देश में नौकरी और हीरा दोनों एक सामान बहुमूल्य हैं। पश्चिमी देशों के जैसे, हम छह   महीने काम करें और छह   महीने सैर, ऐसा तो हो नहीं सकता। नौकरी का भूत आन्दोलन में  लगातार बैठने नहीं देता। जो कालेज के बच्चे हैं, वो भी सेशनल  और सेमेस्टर एक्साम में फंस  गए।अब आन्दोलन के लिए मशीनों की तरह चाइना से आदमी तो इम्पोर्ट किये नहीं जा सकते।अंततः आन्दोलन या परिवर्तन उसी स्तिथि में आ जाते हैं, जहाँ भूखे भजन न होंय गोंपाला।

दूसरा मुद्दा है देशभक्ति या देश प्रेम। कहने को हम सब भारतीय हैं, लेकिन भारतीय होने से ऊपर हम सब की और भी कई पहचाने हैं। मसलम मैं एक हिन्दू लाला हूँ,मैं एक मध्य प्रदेश का गाँव वाला हूँ, दिल्ली वालों की नज़र में शायद बिहारी,और भारतीयों की नजर में, मैं सब कुछ हूँ सिवाय एक भारतीय होने के। अँगरेज़ हमको बाँट गए थे, और इसी फोर्मुले पे आज तक देश की राजनीति चल रही है। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, जनरल, ओ बी सी और एस सी एस टी, हिन्दू -मुसलमान; भारतीय होने का न कोई जिक्र है, न  कोई गर्व, न कोई मुद्दा। पंद्रह अगस्त और छब्बिस जनवरी त्यौहार कम और छुट्टियां ज्यादा माने जाते हैं। हमारी शिक्षा, हमारी परवरिश में भारतीय होने की महत्ता का कहीं पर भी प्रेक्टिकल एक्साम्प्ल नहीं मिलता; सो मुझे लगता है, कि  वक़्त आ गया है कि हम बाँटने की जगह जुड़ना सीखें।

तीसरा मुद्दा है, सरकार और जनतंत्र। यहाँ आधी जनता वोट नहीं देती और जो आधी  देती है, उसके आधे से कम में किसी नेता का चुनाव हो जाता है। वोटिंग के सिस्टम में बदलाव की जरूरत है। वोट टू  रिजेक्ट के साथ साथ और भी कई बदलावों की  ज़रूरत है। उम्मीद करता हूँ, मेरे रहते रहते ऑनलाइन वोटिंग का आप्शन आ जाएगा। शायद वोट डालने पर कुछ इन्सेंटिव  (कृपया इसे धन से ना जोड़ें ) या वोट न डालने पर कुछ ल़ोस  से जोड़ा जाए, तो हमारे जनतंत्र में काफी परिवर्तन हो सकता है। बदलते समय के साथ वोटिंग में कई परिवर्तन किये जा सकते हैं। बात ऐसे तरीकों की है, जो जनतंत्र में भागीदारी को और पारदर्शी बनायें। मुझे उम्मीद है कि  अगले दस साल टेक्नोलोजी के चलते ऐसा परिवर्तन संभव है।

आखिरी मुद्दा है हम और आप। कोईभी टेक्नोलोजी। कोई भी आन्दोलन ऐसा परिवर्तन नहीं ला सकता जो हम आप ला सकते हैं। महज आलस्य के चलते मुद्दों  को न टालें। यदि आप किसी मुद्दे से सरोकार रकते हैं, तॉ आवाज   ज़रूर उठायें। माना कि  कोई दूसरा आपके लिए लड़ रहा है, पर अगर आप साथ खड़े होंगे, तो शायद उसको बल मिल सके। माना आप की नौकरी है, असाइनमेंट्स  हैं, पर अगर आप एक दो घंटे निकाल घर से बाहर निकल अपनी आवाज़ उठाएंगे तो परिवर्तन को गति मिलेगी। अपनी नहीं तो  अपने प्रियजन की सोचिये, शायद आपके मुट्ठी भर प्रयास से उन्हें एक बेहतर कल मिल जाए। 

तब तक मैं ऐसे ही किसी खिसियानी बिल्ली की तरह आपके खम्भे नोचता  रहूँगा।