Sunday 20 May 2012

मिट्टी और पारस...

गर्मियां आईं तो ठन्डे पानी की तलब जागने  लगी. फ्रिज के पानी से मेरे देसी गले की प्यास नहीं बुझती. सो निकल पड़ा मटका खरीदने.मटके के पानी में एक अजब स्वाद होता है मिट्टी का.हैण्ड पम्प के पानी के हल्के खारे स्वाद जैसा. गाँव में कुम्हारों को देखा करता था घूमते चाक पर कच्चे मटके गढ़ते. जादूगरी सा  लगता था, मिट्टी से कुछ भी बना देते थे गाँव के कुम्हार.  त्योहारों के मेले में कई खिलोने खरीदे मिट्टी के. मकर संक्रांति के घोड़े,लक्ष्मी जी का हाथी, अक्षय तृतीय के गुड्डे गुडिया,और दीपावली के गड़ेश जी.
घर के पास "पारस" नाम का कलाकार रहता था.नाम के अनुरूप उसके हाथों में पारस बसता था.मिट्टी को छू के हाथों से नवदुर्गा की ऐसी मूर्तियाँ गढ़ता था कि नास्तिकों  के भी सर झुक जाएँ.वो उस समुदाय का था , जो लोग घर चलाने के लिए  सूअर पालते हैं. लेकिन ये सूअर कभी मुझे उसके घर जाने से नहीं रोक पाए, घंटों उसकी कला निहारता रहता था. गीली मिट्टी तो होती ही ऐसी है कि छू लो तो आनंद आ जाए. शहर में  मिट्टी नहीं मिलती खेलने को. यहाँ "पैक्ड मड" मिलती है, १०० रूपए किलो, जो छूओ तो कड़े आटे सी लगती है, और इसकी महक कि तुलना मैं बारिश कि मिट्टी से तो बिलकुल नहीं करूँगा. सरकार ने मुझ से मेरी मिट्टी चुरा ली...

खैर, मिट्टी तो  देश में हर जगह चुराई जा रही है, कहीं खदानों के नाम पर, कहीं बांधों के नाम पर और कहीं विकास के नाम पर. बाबू और नेता मिट्टी से सोना बना रहे हैं अधिग्रहण के नाम पर. और जिसकी मिट्टी है, वो मिट्टी हो रहा है. इनका बाल भी बांका नहीं होता, कुछ होता है तो मेरे गाँव के उन अनपढ़ गरीब लोगों का जो नहीं जानते कि केन नदी कि रेत उनकी बपौती नहीं, राष्ट्रीय संपत्ति है, जो दो कमरे का घर बनाने के लिए नदी से रेत ढोते हैं और माफिया कहलाते हैं. मेरा तन भी इस देश की मिट्टी से बना है, सो डरता हूँ कि सरकार मुझे भी माफिया न करार कर दे...

अजी छोडिये, बहुत अनाप शनाप हो गया, वैसे भी आपका अपना बंगला है, आपको मिट्टी से क्या?
मिट्टी कि तो तासीर ही है कि ये हमेशा किसी कि नहीं रहती, हमेशा एकरंग कि नहीं रहती, ये गर्मी में फटती  है और  बारिश में पिघलती है...
देखना, एक दिन मैं भी  फटूंगा ,  पिघलूँगा , और इसके जैसा मिट्टी बन जाऊंगा...!!!!!!!!!!

Wednesday 16 May 2012

देश के टुकड़े ...

पड़ोस के एक बच्चे ने सामजिक शास्त्र का प्रश्न पुछा...
देश क्या है???
मैंने अपनी समझ से उत्तर दिया.. ऐसा  क्षेत्र जहाँ के लोग एक संस्कृति, एक सूत्र में बंधे हों, जो उस क्षेत्र की रक्षा, सम्पदा, प्रगति इत्यादि के निर्णय लेते हों, जो आम तौर पर अन्य देशों या क्षेत्रों से नदियों, सागर,पर्वतों इत्यादि द्वारा अलग हो जहाँ के निवासियों को  उस क्षेत्र में कहीं भी आने जाने  की छूट हो  और अन्य क्षेत्र उसे देश की मान्यता देते हों, एक देश कहलाता है,

तो क्या देश के टुकड़े किये जा सकते हैं???
मैं विस्मित था, यद्यपि उत्तर दिया "हाँ, यदि देशवासी इसे देश के हित में समझें, या फिर टुकड़ों के बाद जन्मे दोनों देशों के हित में समझें तो ऐसा हो सकता है." 
(मैं एक क्षण रुका और मैंने सोचा कि हमारे देश के बंटवारे में किस का हित था?? सिवाय एक परिवार के राजनैतिक हित के, मुझे बटवारे में किसी का हित समझ नहीं आया)

भारत में तो राज्य होते थे, इसे देश क्यूँ बनाया गया??
मैंने उसे समझाया कि १८५७ से पहले राज्य ही होते थे, १८५७ से राष्ट्रवाद का जन्म हुआ और लोगों ने "अखंड भारत" का स्वप्न देखा. 
तो १८५७ से पहले भारत नहीं था? 
था, पर एक अखंड राष्ट्र के स्वरुप की कल्पना नहीं थी.
और १९४७ में विभाजन भी हो गया? हमको तो आधा देश मिला है-बच्चे ने मायूसी से कहा...
(अखंड भारत" के स्वप्न के मात्र ९० वर्ष के भीतर इसके २ टुकड़े हो गए, मैं इस सत्य से विदित था, इसकी टीस से नहीं. बच्चे का तर्क सही था, शहीद भगत सिंह ने जिस लाहोर असेम्बली में बम फेका था मैं वहां जा नहीं सकता, वो भारत का हिस्सा नहीं रहा...)
बच्चा चला गया और मैं सोचता रह गया कि आज़ादी के बाद सन ७२ तक लोग लाहौर  नहीं जा सकते थे, ७२ के बाद एल ओ सी खींच दी गई और लोग एल ओ सी के उस पार के कश्मीर नहीं जा सकते, किसी दिन कोई और लाइन खींची जा सकती है (२ बार ऐसा हो चुका है) और लोग दक्कन तक सिमट जायेंगे, कौन जाने तब जयपुर, और अमृतसर भी एल ओ सी के उस पार पड़ें. चौंकिए मत, बटवारे से पहले लाहौर  भी इसी तरफ था...

स्वर्गीय श्री नाथूराम गोडसे का व्यक्तित्व कैसा था, इस पर मैं कोई टिपण्णी नहीं करना चाहता, हाँ पर इतना अवश्य जानता हूँ कि शायद उनकी अंतिम इच्छा कि" उनकी अस्थियाँ अखंड भारत में बहती सिन्धु में बहाई जाएँ' कभी पूरी न हो सके....

Tuesday 15 May 2012

कुचल दिए गए तो???

बीती रात टी वी पर किस्सा आ रहा था कि किसी रईसजादे ने अपनी महंगी गाड़ी से किसी गर्भवती महिला को कुचल दिया.
अगर यह हादसा मेरे आपके साथ हो तो क्या करेंगे? 
इस व्यवस्था को बदलने के तरीके हैं, मगर वो लागू नहीं किये जायेंगे. ऐसा किया जा सकता है की दिल्ली जैसे व्यस्त शहरों  में गाड़ियों की स्पीड और एससिलरेसन लिमिट रख दी जाए. लोग तो इसे मानेंगे नहीं, पर ये भी किया जा सकता है की गाड़ियों को इस तरह से बनाया जाए की वो निर्धारित स्पीड और एससिलरेसन में चलें...
परिवहन व्यवस्था में दुर्घटनाओ और ओवर लोडिंग के चलते किसी आर टी ओ अधिकारी की नौकरी गई हो, मैंने अभी तक नहीं सुना...
ऐसे पिछले कितने हादसों में गुनाहगारों को सजा हुई, मैं नहीं जानता, मैंने कभी नहीं सुना.पुलिस तो १० दिन में उसे पकड़ भी नहीं पाई.पता नहीं ऐसे लोगों को पुलिस खुद क्यूँ नहीं पकड़ पाती? यह लोग शान से अदालत के सामने चमचमाती गाड़ियों में उतारते हैं, और जमानत पर रिहा हो जाते हैं, अगर गलती से निचली अदालत १०-१२ साल तक जिरह के बाद इनको १-२ साल कि सज़ा सुना भी दे तो ये केस ऊपरी अदालत में ले जायेंगे.
फरियादी जो पहले ही अपना बेशकीमती खो चुके होते हैं, सालों अपना चैन सुकून पैसा लगा कर निराश होते रहते हैं, और इन रईसजादों के वकीलों के सामने घुटने टेक देते हैं.
मुझे लगता है अदालतों को आम जनता के केसों में देरी से कोई सरोकार नहीं.
यह आलम बदलने वाला नहीं, क्यूंकि हम तभी बाहर निकलेंगे जब हमारा कोई अपना कुचल दिया जाए...किसी गैर के कुचले जाने से हमे क्या???

मैं रात भर सोचता रहा कि इस व्यवस्था में इन्साफ का कोई दूसरा तरीका है ???
बेहतर है कि अगर कोई मेरे परिवार को कुचले तो बजाये अदालत का मुह देखने के मैं हिम्मत कर के खुद ही उसे गोली मार दूं
अदालतें कब ये समझेंगी कि इन मुद्दों  में इन्साफ पाने की मरती उम्मीद को जिन्दा रखने की  यातना, किसी क़त्ल की सज़ा से कहीं ज्यादा होती है...

आपके अखबार...

आज कल जिसे देखो, मुझे समझाने पे तुला है की देश में कितना भ्रष्टाचार है.सोशल साइट्स पर जहाँ देखो, किसी नेता की एडिटेड पिक्चर के नीचे पचास कमेन्ट दिखते हैं. भई मैं देश का पढ़ा लिखा नागरिक हूँ, मैं भी जानता हूँ कि देश के क्या हाल हैं, पर लोगों से गुजारिश है कि मुझे समझाने पर न तुल जाएँ, वो भी वह बातें जो हम वैसे भी समझते हैं.
सोशल साइट्स पारम्परिक मीडिया से कई मायने में बेहतर है, यहाँ विचारों का आदान प्रदान स्वच्छंदता से होता है, लेकिन दूसरों को मर्यादा का पाठ सिखाने वाले गुमनाम महापुरुषों से मेरा नम्र निवेदन है कि कृपया अपनी मर्यादा भंग न करें.
ऑरकुट और फेसबुक ने कई बिछड़े दोस्तों से मिलवाया, कई जिनकी के. जी. की ग्रुप फोटो निकल कर उनकी आज की सूरत से मिला के घंटों हंसा. मैं तकनीक का गुलाम हूँ कि नहीं, नहीं जानता, लेकिन दोस्तों का गुलाम तो हूँ ही.
सरकारों ने नया तरीका खोज लिया है जनता को फुसलाने का. जब जनता या इसके नुमाइंदे  कोई  मुद्दा उठाते हैं, सरकार बातचीत के नाम पर उसको महीनो लटकाती है, फिर बीच में किसी और नए मसले को हवा दे दी जाती है और पिछला मुद्दा भुला दिया जाता है. सरकार से इस से ज्यादा की उम्मीद है भी नहीं. इनके कदम इतने ठोस हैं की कभी उठते ही नहीं. गलती मेरी है, मुझे मुद्दे जल्दी भूल जाने की आदत पड़ गई है.कभी पिछले बरस के अखबार उठाऊँ तो समझ आये कि कितने मुद्दों ने एक पल को मेरी आत्मा कि झंझोर  दिया था, जिनकी अब मुझे याद भी नहीं. मैं ठहरा लाला आदमी, सो मैंने मुद्दे और अखबार रद्दी के भाव बेच दिए.
अब तो आप से उम्मीद लगाये बैठा हूँ... आपने तो अपने अखबार सम्हाल के रखे होंगे न...???

Sunday 6 May 2012

इबादत से परे...

इबादत से परे...
किसी काम से दो दिनों के लिए घर जाना पड़ा. पता नहीं वहां का घी शुद्ध घी क्यूँ लगता है, और यहाँ का घी डालडा ? खैर... मुझे तो ऐसे हजारों वहम हैं, जिन्हें न तो आप मानते हैं, न सरकार न सरकार के मुलाजिम.
वर्ण से कायस्थ हूँ. सो कायस्थों के एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने चला गया. पर इसका मतलब  ये नहीं कि मैं जातिवाद का समर्थक हूँ. बैठे बैठे मन में बात कौंधी कि क्या हमारे देश को और मंदिर मस्जिद चाहिए या और स्कूल और अस्पताल? भाई जितने खर्चे में अक्षरधाम सरीखे मंदिर बनते हैं, उतने में तो शायद एक राज्य के हर गाँव में स्कूल खोले जा सकते हैं. वैसे भी जहाँ देखता हूँ, हर गली नुक्कड़ में छोटे बड़े इबादतखाने दिख ही जाते हैं. शायद यही बात है कि मैं सूफियों की वकालत करता हूँ. इसमें कोई आडम्बर नहीं है.जिस दिन हमारे देश में पर्याप्त स्कूल कालेज हो जाएँ, उसके बाद हम इबादतखाने बनाते रहें तो क्या बुरा है?

वैसे बात छेड़ने का मुद्दा कुछ और था. हुआ यूँ कि मैंने गौर किया कि कार्यक्रम में सिर्फ बच्चे और बुज़ुर्ग थे. २० से ३० साल के नौजवान कोई भी नहीं. फिर समझ में आया कि नौजवान तो सारे भोपाल, दिल्ली बंगलौर में बस गए हैं. और जो बच्चे आज यहाँ हैं, वो भी कल बड़े शहरों को निकल जायेंगे. बचेंगे सिर्फ ये बुज़ुर्ग जिन्होंने अपनी जवानी हमे पढ़ाने में खपा दी. एक पल को लगा हमारे छोटे शहर धीरे धीरे बूढ़े जर्ज़र और वीरान हो रहे हैं. यहाँ के मुद्दों की लड़ाई के लिए काबिल नौजवान खून तो बाहर अपनी रोज़ी रोटी और पहचान की लड़ाई लड़ रहा है. यहाँ नल से नाले का पानी आता है. यहाँ सीमेंट की नयी सड़कें मकानों की आधी मंजिल से ऊंची बना दी जाती हैं. यहाँ हर गली एक कचराघर है. यहाँ बिना हेलमेट के १४ साल के लड़के शहर में रेस लगते हैं. यहाँ खिड़कियाँ कम और बेनर ग्लेक्स ज्यादा हैं. और इस सब को सुधारने वाली नौजवान पीढ़ी महानगरों में "लिव इन" की जिंदगी जी रही है.

शायद मैं जल्दी वापस आ जाऊं. आधी उम्र तो जी ही चूका हूँ. दिल्ली में न जिंदगी में सुकून है न मौत में.हादसे तक में  मरने पर सिर्फ १० सेकण्ड की क्लिप आती है टी वी पर. किसी को गम नहीं होता.यहाँ गाँव में मरने पर मेरे पीछे रोने वाले तो हैं. गाँव वापस इसीलिए नहीं आना चाहता कि मुझे कोई अच्छा मौका या धंधा समझ आ रहा है यहाँ, या फिर मुझे किसी पहचान कि तलाश है, बल्कि इसीलिए आना चाहता हूँ कि समझ चुका हूँ कि ये गाँव ही मेरा हिस्सा है, यही मेरी पहचान है...!!!

Thursday 3 May 2012

वो बुला ही लेता है...

गाहे बगाहे निज़ुद्दीन दरगाह पहुँच  जाता हूँ . यहाँ एक अजीब ओ गरीब सुकून पसरा हुआ है, जो अक्सर मुझे अपने पास खींच लेता है. मैं नहीं जानता कि इसकी वजह क्या है. शायद यहाँ दर्शन के कुछ पैसे नहीं लगते, या फिर खुसरो साहब बुला लेते हैं, या फिर पास ही सो रहे चाचा ग़ालिब का हुकुम आ जाता है. एक अलग ही अलमस्ती यहाँ वाकिफ रहती है. अपने इश्क ओ मोहब्बत से  इ रु ब रु रहता हूँ यहाँ .खुदी से बाहर निकल जाता हूँ. न रोज़ी का झगडा, न दुनिया के मसले.
"आई लव सूफिस्म;" आजकल का फैशन है. जिसे देखो सूफिस्म की दुकान लगाता है. कम ही लोग जानते होंगे कि सूफी शब्द सफ़ से आया है जिसका मतलब है एक ख़ास किस्म का खुरदुरा सस्ता ऊनी  कपडा. उस ज़माने में जो संत फ़कीर इसे पहनते थे, सूफी कहलाते थे, फ़ारसी में साफ का मतलब अक्ल होता है, सो उस लिहाज़ से भी ये "फिट" बैठता है.
यूँ तो "जींस" कि इजाद भी "काऊ बोय्स" के सस्ते कपडे की तौर पर हुई थी. मुझे अब भी याद है, किस तरह न्यूपोर्ट जींस अक्षय कुमार के इश्तेहारों की दम पे छोटे छोटे शहरों तक छा गया था. पर आज डेनीजन के ज़माने में इसके पर्याय बदल गए हैं.पहले के ज़माने में घर बार कि शर्ट (बुकशर्ट) एक ही थान के कपडे से बनती थी और बाप बेटे भाई भतीजे उनको ऐसे पहनते थे जैसे मेंच्स्टर यूनाइटेड के फैन इसकी जर्सी पेहेनते हैं.  सूफी संगीत पे रैप कि चादर चढ़ा दी गई है. सूफियों के कलाम गला दिए गए हैं. कितने ऐसे बाशिंदे होंगे, जो हक से खुद को सूफी कह सकते हैं. कितनो ने दिव्वाली पे नुक्कड़ के इस्त्री वाले को मिठाई खिलाई है, या ईद पर मोहल्ले में सेवइं बाटी हैं??
मैं बिक रहा हूँ,मेरे लोग बिक रहे हैं, क्यूंकि हमको खरीदने कि लत पड़ गई है.मुद्दा है कि जो हम खरीदते हैं, क्या हमको उसकी ज़रुरत है? आप की खरीदने की वहशत किसी का महीने भर का राशन चला सकती है. पर आपको इस से क्या? आपने भी पढाई के दिनों में एक रोटी में रात गुजारी है, और आज २५० का पिज्जा फेक देते हैं??
कभी गौर फरमाईयेगा कि अपनी मुश्किलों के दिनों में आप क्या थे और अप आज क्या बन गए हैं? अगर शर्म आ जाए, तो किसी गरीब को एक वक़्त का खाना खिला दीजियेगा, बड़ा सुकून मिलेगा.
एक बात और, मैं बात मुद्दे की करता हूँ, अपने शब्दों में, और कम शब्दों में, आप को समझ आए तो बेहतर, वरना खुदा रहम करे....

Wednesday 2 May 2012

पचास बरस का सफ़र...


उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति अपने आप में अनूठी ट्रेन है. दिल्ली से खजुराहो तक का सफ़र अपने आप में पचास बरस का सफ़र है. रेल्वे जब खजुराहो के जीर्णोद्धार हेतु लौह पथ गामिनी सेवा शुरू की तब शायद देश के सबसे खस्ताहाल स्लीपर के डिब्बे इस ट्रेन को दान किये. खैर ... मजे की बात ये है कि यह गाडी उत्तर प्रदेश के छोटे छोटे गाँव जैसे "कुल पहाड़" (कृपया गूगल करें) तो रूकती है, पर ग्वालियर चूंकि मध्य प्रदेश में है, सो वहां रुकना इसकी शान के खिलाफ है. लगता है अब रेल गाड़ियाँ भी भाजपा और बसपा का अंतर जानती हैं.किसी दिन ग्वालियर की कोई उन्माद भरी भीड़ इसे रोकेगी और इसकी सीटें तोड़ेगी जलाएगी तो ग्वालियर भी एक स्टॉप बना दिया जाएगा.देश में व्यवस्था परिवर्तन अब इसी तरह होते दिखते हैं.
झांसी तक ट्रेन द्रुतगति से चलती है. झाँसी के बाद लगता है डीजल का  मनमोहक (कृपया "क" को "न" न पढ़ें, डीजल इंजन आवाज़ करता है) और ट्रेन सिंगल रूट पर पासिंग  दे दे के निकलती है. यहाँ कोई अंग्रेजी में बात नहीं करता. डब्बे में बर्गर की जगह पूड़ी सब्जियों के पुलंदे खोले जाते हैं, इनका कम्पार्टमेंट में हाथ धोना स्वच्छता की निशानी है, बदतमीजी नहीं.चाइना मेड मोबाईल में फुल वोल्यूम पर  गाने का मज़ा ये रात भर लेंगे. या तो इन्हें कोसिये या इनके साथ मस्त हो लीजिये.
सुबह कुछ बुजुर्ग दिखते हैं, जिनको आज भी दातुन से प्यार है, बेचारे आज तक नहीं जान पाए कि उनके टूथ पेस्ट में नमक है या नहीं. गर्मी के दिनों में भी सुबह कि हवा एक सिरहन पैदा करती है, जंगली तोतों का एक झुण्ड ट्रेन से होड़ लगता आगे निकल जाता है. खेत अभी अभी फसलों के बोझ से मुक्त हुए हैं. हिरने और नीलगाय (हैरान मत होइए, ये यहाँ वैसे ही दिखती हैं जैसे दिल्ली में डीटीसी बसें ) कुलाचें भरती हैं. एक थ्री व्हीलर में 8-10 लोग  बैठ  के खजुराहो बस स्टैंड को रवाना होते हैं. रास्ते में कहीं बकरियां मिमियाती हैं, कहीं रहट चलते हैं, कहीं कोई गृहिणी कोई बुन्देली गीत गुनगुनाती है...काश उस मूर्खा को रैप का मतलब पता होता. मेरे हिसाब से तो उसका जीवन ही व्यर्थ है.
बस स्टैंड पहुच कर लकड़ी क़ी आंच वाले चूल्हे पे पकी चाय का लुत्फ़ उठाया.
यहाँ पचास बरस में कुछ नहीं बदला.यहाँ के नेता खुद को बदलते रह गए, और केंद्र सरकार अपनी छवि सुधारती रह गई. आज भी ये जगह देश के बड़े शहरों से पचास साल पीछे है...यहाँ किसान मजदूर भूखे मर मर के, पलायन कर कर के रिफ्यूजी हो गए, पर इनकी सुध किसी ने न ली
काश यह जगह कभी न बदले, बदलाव और प्रगति के नाम पे शहरों और उनके मिजाजों, उनकी तहजीबों क़ी कब्र मैंने भोपाल, लखनऊ और दिल्ली में खूब देखी हैं.ग़ालिब मियां क़ी मज़ार यूँ सिमट चुकी है कि बेचारे अब कब्र में भी पाँव फ़ैलाने को तरसते होंगे ..
मैं नहीं चाहता कि मेरा गाँव भी एक कब्रगाह बने....