गर्मियां आईं तो ठन्डे पानी की तलब जागने लगी. फ्रिज के पानी से मेरे देसी गले की प्यास नहीं बुझती. सो निकल पड़ा मटका खरीदने.मटके के पानी में एक अजब स्वाद होता है मिट्टी का.हैण्ड पम्प के पानी के हल्के खारे स्वाद जैसा. गाँव में कुम्हारों को देखा करता था घूमते चाक पर कच्चे मटके गढ़ते. जादूगरी सा लगता था, मिट्टी से कुछ भी बना देते थे गाँव के कुम्हार. त्योहारों के मेले में कई खिलोने खरीदे मिट्टी के. मकर संक्रांति के घोड़े,लक्ष्मी जी का हाथी, अक्षय तृतीय के गुड्डे गुडिया,और दीपावली के गड़ेश जी.
घर के पास "पारस" नाम का कलाकार रहता था.नाम के अनुरूप उसके हाथों में पारस बसता था.मिट्टी को छू के हाथों से नवदुर्गा की ऐसी मूर्तियाँ गढ़ता था कि नास्तिकों के भी सर झुक जाएँ.वो उस समुदाय का था , जो लोग घर चलाने के लिए सूअर पालते हैं. लेकिन ये सूअर कभी मुझे उसके घर जाने से नहीं रोक पाए, घंटों उसकी कला निहारता रहता था. गीली मिट्टी तो होती ही ऐसी है कि छू लो तो आनंद आ जाए. शहर में मिट्टी नहीं मिलती खेलने को. यहाँ "पैक्ड मड" मिलती है, १०० रूपए किलो, जो छूओ तो कड़े आटे सी लगती है, और इसकी महक कि तुलना मैं बारिश कि मिट्टी से तो बिलकुल नहीं करूँगा. सरकार ने मुझ से मेरी मिट्टी चुरा ली...
खैर, मिट्टी तो देश में हर जगह चुराई जा रही है, कहीं खदानों के नाम पर, कहीं बांधों के नाम पर और कहीं विकास के नाम पर. बाबू और नेता मिट्टी से सोना बना रहे हैं अधिग्रहण के नाम पर. और जिसकी मिट्टी है, वो मिट्टी हो रहा है. इनका बाल भी बांका नहीं होता, कुछ होता है तो मेरे गाँव के उन अनपढ़ गरीब लोगों का जो नहीं जानते कि केन नदी कि रेत उनकी बपौती नहीं, राष्ट्रीय संपत्ति है, जो दो कमरे का घर बनाने के लिए नदी से रेत ढोते हैं और माफिया कहलाते हैं. मेरा तन भी इस देश की मिट्टी से बना है, सो डरता हूँ कि सरकार मुझे भी माफिया न करार कर दे...
अजी छोडिये, बहुत अनाप शनाप हो गया, वैसे भी आपका अपना बंगला है, आपको मिट्टी से क्या?
मिट्टी कि तो तासीर ही है कि ये हमेशा किसी कि नहीं रहती, हमेशा एकरंग कि नहीं रहती, ये गर्मी में फटती है और
बारिश में पिघलती है...
देखना, एक दिन मैं भी
फटूंगा ,
पिघलूँगा , और इसके जैसा मिट्टी बन जाऊंगा...!!!!!!!!!!