Monday 31 December 2012

अकबरी ज़माने की बात है ...

अकबरी ज़माने की बात है ...


एक गाँव में ज़मींदार के पास सैकड़ों सांड थे। ये सांड आस पास के गाँवों तक की फसल बर्बाद कर देते थे। सो गाँव वाले फ़रियाद ले के राजा के पास गए। फैसला हुआ कि  आगे से जो भी सांड फसल बर्बाद करेगा, उसे कांजी हाउस (आवारा जानवरों को बाँधने की जगह ) की जगह बूचडखाने में कटवा दिया जाएगा। गाँव वाले ख़ुशी ख़ुशी लौट आये। महीने भर बाद सांड फिर खेतों में घुस गए। 
ज़मींदार को चिंता हुई की उसके बैल नाहक मारे जायेंगे, सो वो जा पहुचा कोतवाल के पास। कोतवाल ने पांच अशर्फियों में सांड बूचडखाने की जगह कांजी हाउस भेज दिए। ज़मींदार पंहुचा कांजी हॉउस के मालिक के पास। उसने पांच अशर्फियाँ ली और कहा कि  तुम वजीर को सम्हाल लो, बाकी मैं देख लूँगा। वजीर ने बीस अशर्फियों में हामी भर दी। तयशुदा दिन पर मुकदमा शुरू हुआ।

राजा- ज़मींदार तुम्हारे सांड खेत में घुसे थे?
ज़मींदार- हैं ...? सांड...? न जी माहराज,... मैं तो बकरियां पालता हूँ 
गाँव वाले- महाराज, ये झूठ बोल रहा है।
वजीर - तुम सब चुप रहो नहीं तो महाराज की गुस्ताखी में फांसी चढ़ा दिए जाओगे 
राजा - जानवरों को हाज़िर करो 
(कांजी हाउस का मालिक सारे भैंसों पर चूना पोत  के ले आया)
राजा- ये इतने बड़े बकरे?
ज़मींदार- माहराज मेरे खेत में बड़ी घांस होती है, वही इनको पीस के खिलाता हूँ, सो ये इतने बड़े हो गए हैं 
गाँव वाले- माहराज झूट बोलता है 
वजीर- सिपाहियों इन सब गाँव वालों ने माहाराज के सामने गुस्ताखी की है, इन सभी को पांच पांच कोड़े रसीद करो 
(गाँव वाले रहम रहम चिल्लाते रहे और जल्लाद कोड़े बरसाते रहे )
फिर राजा तीन महीने को काश्मीर घूमने निकल गया, लौट के वापस आया तो मुकदमा फिर शुरू हुआ

राजा- घांस पीस के क्यूँ खिलाते हो? 
ज़मींदार- माहराज, ये अजब नस्ल के बकरे हैं, इनके दांत ही नहीं होते 
(तीन महीने में ज़मींदार ने पांच भैंसों के दांत तुडवा दिए  थे )
राजा- मुझे तसल्ली नहीं, मै खुद इनके मुह देखूंगा 
राजा ने सांडों के तीन मुह देखे और तसल्ली कर ली 

राजा - हाँ तो फैसला हो गया, ये अजब नस्ल के बकरे हैं... सांड नहीं...; इनको वापस ज़मींदार को सौंप दो, और इस फैसले पर मुस्तैदी से अमल हो कि  सांड अगर फसल बर्बाद करे, तो उसे सीधे बूचडखाने भेज दिया जाए ...

वजीर, ज़मींदार, कोतवाल  और बूचडखाने का मालिक - महाराज का इकबाल बुलंद रहे...!!!!!!!! ऐसा इन्साफ न आज तक देखा न सुना।तारिख आपके इन्साफ को सदियों तक बयान करेगी ...!!!!!!!!

रियासत में फिर दोबारा कभी खेतों में सांडों के घुसने की शिकायत नही  आई। 


अकबरी ज़माने की बात है ...


वैसे, सुना है देश में रेप के विरुद्ध कानून बदलने जा रहा है ???

Wednesday 12 December 2012

तीसरी की किताब ...


एक अरसे पहले की बात है। सैनिक स्कूल से हूँ। स्कूल में दौड़ भाग, खेल कूद और पी टी परेड से बदन चुस्त और सेहत दुरुस्त रहती थी। फिर बरसों बैठे रहने के बाद कमर 30 से 32 हुई तो मुझे चिंता सताने लगी। सोचा डम्बल शम्बल भांज  के थोडा फिट हो जाऊं। गूगल देव से दिल्ली के खेल कूद सामान के दूकानदारों के पते मांगे। भाई हम ठहरे सिंगल पसली आदमी, सो अपनी शर्म और झिझक को छिपाने के लिए एक हट्टे कट्टे  दोस्त को ले कर जा पहुंचे करोल बाग़ में गुलाटी स्पोर्ट्स। ये दूकान दूकान कम और गोदाम ज्यादा लगती है, शायद इसीलिए यहाँ शहर से लगभग आधे दाम में सामान मिलता है।ये मार्केटिंग के खर्चे का अतिरिक्त बोझ आपकी जेब पर नहीं डालते।अपने वजन के हिसाब से हमने सबसे हलके लड़कीनुमा डम्बल खरीद लिए। बचपन में दीपक भारती के साथ स्केटिंग सीखी थी, सो कुछ स्केट्स के पहियों पर ऊँगली घुमा के पुराने दिन ताज़ा किये।साइकिल के बाद स्केट्स ही ऐसी चीज़ थी जिसने मुझे आज़ाद परिंदे की फीलिंग्स सिखाई। 

पैसे देने के लिए जैसे ही काउंटर  पर पहुचे, तो एक सत्तर साल का बुजुर्ग तीसरी क्लास की किताब पढ़ रहा था। गौर से देखा तो पास ही मोरल साइंस की किताबों का ढेर लगा था। गुफ्तगू शुरू हो गई। उसने बताया कि  कैसे पुराने दिनों में कसरत का रिवाज़ रहता था, कैसे बड़े बड़े मुगदल (विदेसी डम्बल के देसी महा बाप) भांजे जाते थे। "आप की बहिन बेटियों की इज्जत ट्रेन में नहीं लुटी, तो आप क्या जाने आदमी के बाजुओं में ताकत का क्या मतलब होता है" उसकी एक बात ने मुझे महीनो कुरेदा।एक बात ही बटवारे का दर्द बयान कर गई।मैं इस दर्द को समझने में शायद उम्र और अकल  से बहुत छोटा हूँ।कुछ दर्द शायद सदियों में भी नहीं मिटते।
फिर बात हुई मोरल साइंस की किताबों की। "आप बड़े हो के सब पढ़ते हो,डाक्टर इंजीनियर बनते हो और बचपन की बेसिक बातें भूल जाते हो। दोस्त पड़ोसियों की मदद करना, भूखों को खाना खिलाना, कमजोर के लिए लड़ना। चाचा चौधरी और बिल्लू - पिंकी की किताबों में भी सामाजिक जिम्मेदारियों से भरी बातें होती थी, (बैटमेन  में क्या है, ये मुझ गंवार से मत पूछियेगा। )
फिर बातों बातों में उसने दोनों हाथों में एक एक मुगदल लिए और आठ दस बार भांज दिए। हमने मन ही मन सोचा बुजुर्ग आदमी है, मुगदल हल्के  होंगे। फिर मेरी अर्ध पारदर्शी  काया  पे तरस खाते हुए उसने एक मुगदल मेरे हट्टे कट्टे दोस्त को थमा दिया। मैं भौचक्का रह गया जब भांजना तो दूर, मेरा दोस्त उस मुग्दाल को दोनों हाथों से सीधा खड़ा भी न रख पाया।पुराने देसी घी का दम मुद्दतों माद देखा मैंने।कभी फुर्सत मिले तो जरूर जाइएगा गुलाटी स्पोर्ट्स (भाई इस विज्ञापन का गुलाटी ने मुझे एक भी रूपया नहीं दिया।)

भाई वो बात अरसे पहले की है, आज भी सोचता हूँ, हमारे देश में पहले अखाड़े होते थे, नाग पंचमी के दंगल मैंने बचपन में खूब देखे थे। अब नाईट शिफ्ट वाले काल सेंटर हैं। सेहत और शहर जैसे एक दुसरे के दुश्मन हैं। 
इन सब से ऊपर अक्सर सोचता हूँ, और मिस करता हूँ अपनी तीसरी की मोरल साइंस की किताब को। काश उसे जवानी में दो चार बार और पढता तो एक बेहतर इंसान होता। 
वैसे, आप आजकल क्या पढ़ रहे हैं?

Wednesday 5 December 2012

FDI बोले तो ...फाड़ दो इण्डिया



बचपन में नानी कहानी सुनाती थी। कहानी सुनने में हूंकने  (बीच बीच में हामी भरने ) का नियम रहता था। 
ऐसी एक कहानी थी एक रानी की कहानी। किस्सा कुछ यूँ था कि रानी के पास एक बर्तन था जिसमे एक किलो दूध था, एक पाव  की चाय बन गई, एक पाव  की मिठाई , एक पाव का दही और बर्तन में सवा किलो दूध बचा था।मैंने हामी में हूँ कर दी। नानी बोली, कैसा लाला है तू? एक किलो से तीन पाव जाने के बाद सवा किलो कैसे बच  सकता है?
आज संसद में सरकार वही कहानी पूरे देश को सुना रही है। रिटेल में ऍफ़ डी  आई की कहानी। सारे मजदूर किसान फलेंगे फूलेंगे।सारे बिचौलिए ख़तम हो जायेंगे। भाई मेरी मूर्खता मुझे बताती है की सब से ज्यादा बिचौलिए तो सरकारी कामो में लगे हैं। राशन की दुकानों से ले कर आर टी ओ तक।
टी वी तो आप देखते ही हैं, अखबार भी पढ़ते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि  पिछली मर्तबा आपने कब खबर पढ़ी थी कि  "किसी मिठाई की दूकान से त्यौहार पर मिठाई खरीद कर खाने से किसी की सेहत बिगड़ी हो? ऐसा कभी कभार ही होता है, पर हर दीपावली पर न्यूज चैनल मिलावटी दूध की खबर इतनी बढ़ा  चढा कर दिखाते क्यूँ दिखाते हैं? भाई मिठाई नहीं बिकेगी तो क्या बिकेगा? जवाब है कैडबरी और कुरकुरे। अब यही फार्मूला देश के संपूर्ण रिटेल पर लागू होगा। आने वाले दिनों के विज्ञापन भी बदल जायेंगे 
क्या आप खुले खेतों का गेहूं खाते हैं? इसमें कितने बेक्टीरिया होंगे जो आपके बच्चे के लिया जानलेवा हो सकते हैं, खाइए फलाना कंपनी का प्रोसेस्ड गेहू।
डेड सी से परिष्कृत नमक, जो आपकी दाल में जगाये एक इंटर नेशनल महक, खाइए और खो जाइए (या चाहें तो भाड़  में जाइये)
असंगठित खुदरा व्यापर कहीं भी किसी भी स्तर  से संगठित खुदरा का मुकाबला नहीं कर सकता। इस दूध की मलाई और मक्खन किधर जाएगा, सबको पता है। 

नानी सच्ची थी, नानी की कहानियाँ भी सच्ची थी। अफ़सोस कि  मैं वोट डालते वक़्त नानी की कहानियाँ भूल गया। अरे ! आप वोट डालने नहीं आये थे? सॉरी, भूल गया था, आपने वोट की छुट्टी में कई पेंडिंग काम जो निपटाने थे, काम निपट गए, और देश पेंडिंग रह गया। 

Sunday 20 May 2012

मिट्टी और पारस...

गर्मियां आईं तो ठन्डे पानी की तलब जागने  लगी. फ्रिज के पानी से मेरे देसी गले की प्यास नहीं बुझती. सो निकल पड़ा मटका खरीदने.मटके के पानी में एक अजब स्वाद होता है मिट्टी का.हैण्ड पम्प के पानी के हल्के खारे स्वाद जैसा. गाँव में कुम्हारों को देखा करता था घूमते चाक पर कच्चे मटके गढ़ते. जादूगरी सा  लगता था, मिट्टी से कुछ भी बना देते थे गाँव के कुम्हार.  त्योहारों के मेले में कई खिलोने खरीदे मिट्टी के. मकर संक्रांति के घोड़े,लक्ष्मी जी का हाथी, अक्षय तृतीय के गुड्डे गुडिया,और दीपावली के गड़ेश जी.
घर के पास "पारस" नाम का कलाकार रहता था.नाम के अनुरूप उसके हाथों में पारस बसता था.मिट्टी को छू के हाथों से नवदुर्गा की ऐसी मूर्तियाँ गढ़ता था कि नास्तिकों  के भी सर झुक जाएँ.वो उस समुदाय का था , जो लोग घर चलाने के लिए  सूअर पालते हैं. लेकिन ये सूअर कभी मुझे उसके घर जाने से नहीं रोक पाए, घंटों उसकी कला निहारता रहता था. गीली मिट्टी तो होती ही ऐसी है कि छू लो तो आनंद आ जाए. शहर में  मिट्टी नहीं मिलती खेलने को. यहाँ "पैक्ड मड" मिलती है, १०० रूपए किलो, जो छूओ तो कड़े आटे सी लगती है, और इसकी महक कि तुलना मैं बारिश कि मिट्टी से तो बिलकुल नहीं करूँगा. सरकार ने मुझ से मेरी मिट्टी चुरा ली...

खैर, मिट्टी तो  देश में हर जगह चुराई जा रही है, कहीं खदानों के नाम पर, कहीं बांधों के नाम पर और कहीं विकास के नाम पर. बाबू और नेता मिट्टी से सोना बना रहे हैं अधिग्रहण के नाम पर. और जिसकी मिट्टी है, वो मिट्टी हो रहा है. इनका बाल भी बांका नहीं होता, कुछ होता है तो मेरे गाँव के उन अनपढ़ गरीब लोगों का जो नहीं जानते कि केन नदी कि रेत उनकी बपौती नहीं, राष्ट्रीय संपत्ति है, जो दो कमरे का घर बनाने के लिए नदी से रेत ढोते हैं और माफिया कहलाते हैं. मेरा तन भी इस देश की मिट्टी से बना है, सो डरता हूँ कि सरकार मुझे भी माफिया न करार कर दे...

अजी छोडिये, बहुत अनाप शनाप हो गया, वैसे भी आपका अपना बंगला है, आपको मिट्टी से क्या?
मिट्टी कि तो तासीर ही है कि ये हमेशा किसी कि नहीं रहती, हमेशा एकरंग कि नहीं रहती, ये गर्मी में फटती  है और  बारिश में पिघलती है...
देखना, एक दिन मैं भी  फटूंगा ,  पिघलूँगा , और इसके जैसा मिट्टी बन जाऊंगा...!!!!!!!!!!

Wednesday 16 May 2012

देश के टुकड़े ...

पड़ोस के एक बच्चे ने सामजिक शास्त्र का प्रश्न पुछा...
देश क्या है???
मैंने अपनी समझ से उत्तर दिया.. ऐसा  क्षेत्र जहाँ के लोग एक संस्कृति, एक सूत्र में बंधे हों, जो उस क्षेत्र की रक्षा, सम्पदा, प्रगति इत्यादि के निर्णय लेते हों, जो आम तौर पर अन्य देशों या क्षेत्रों से नदियों, सागर,पर्वतों इत्यादि द्वारा अलग हो जहाँ के निवासियों को  उस क्षेत्र में कहीं भी आने जाने  की छूट हो  और अन्य क्षेत्र उसे देश की मान्यता देते हों, एक देश कहलाता है,

तो क्या देश के टुकड़े किये जा सकते हैं???
मैं विस्मित था, यद्यपि उत्तर दिया "हाँ, यदि देशवासी इसे देश के हित में समझें, या फिर टुकड़ों के बाद जन्मे दोनों देशों के हित में समझें तो ऐसा हो सकता है." 
(मैं एक क्षण रुका और मैंने सोचा कि हमारे देश के बंटवारे में किस का हित था?? सिवाय एक परिवार के राजनैतिक हित के, मुझे बटवारे में किसी का हित समझ नहीं आया)

भारत में तो राज्य होते थे, इसे देश क्यूँ बनाया गया??
मैंने उसे समझाया कि १८५७ से पहले राज्य ही होते थे, १८५७ से राष्ट्रवाद का जन्म हुआ और लोगों ने "अखंड भारत" का स्वप्न देखा. 
तो १८५७ से पहले भारत नहीं था? 
था, पर एक अखंड राष्ट्र के स्वरुप की कल्पना नहीं थी.
और १९४७ में विभाजन भी हो गया? हमको तो आधा देश मिला है-बच्चे ने मायूसी से कहा...
(अखंड भारत" के स्वप्न के मात्र ९० वर्ष के भीतर इसके २ टुकड़े हो गए, मैं इस सत्य से विदित था, इसकी टीस से नहीं. बच्चे का तर्क सही था, शहीद भगत सिंह ने जिस लाहोर असेम्बली में बम फेका था मैं वहां जा नहीं सकता, वो भारत का हिस्सा नहीं रहा...)
बच्चा चला गया और मैं सोचता रह गया कि आज़ादी के बाद सन ७२ तक लोग लाहौर  नहीं जा सकते थे, ७२ के बाद एल ओ सी खींच दी गई और लोग एल ओ सी के उस पार के कश्मीर नहीं जा सकते, किसी दिन कोई और लाइन खींची जा सकती है (२ बार ऐसा हो चुका है) और लोग दक्कन तक सिमट जायेंगे, कौन जाने तब जयपुर, और अमृतसर भी एल ओ सी के उस पार पड़ें. चौंकिए मत, बटवारे से पहले लाहौर  भी इसी तरफ था...

स्वर्गीय श्री नाथूराम गोडसे का व्यक्तित्व कैसा था, इस पर मैं कोई टिपण्णी नहीं करना चाहता, हाँ पर इतना अवश्य जानता हूँ कि शायद उनकी अंतिम इच्छा कि" उनकी अस्थियाँ अखंड भारत में बहती सिन्धु में बहाई जाएँ' कभी पूरी न हो सके....

Tuesday 15 May 2012

कुचल दिए गए तो???

बीती रात टी वी पर किस्सा आ रहा था कि किसी रईसजादे ने अपनी महंगी गाड़ी से किसी गर्भवती महिला को कुचल दिया.
अगर यह हादसा मेरे आपके साथ हो तो क्या करेंगे? 
इस व्यवस्था को बदलने के तरीके हैं, मगर वो लागू नहीं किये जायेंगे. ऐसा किया जा सकता है की दिल्ली जैसे व्यस्त शहरों  में गाड़ियों की स्पीड और एससिलरेसन लिमिट रख दी जाए. लोग तो इसे मानेंगे नहीं, पर ये भी किया जा सकता है की गाड़ियों को इस तरह से बनाया जाए की वो निर्धारित स्पीड और एससिलरेसन में चलें...
परिवहन व्यवस्था में दुर्घटनाओ और ओवर लोडिंग के चलते किसी आर टी ओ अधिकारी की नौकरी गई हो, मैंने अभी तक नहीं सुना...
ऐसे पिछले कितने हादसों में गुनाहगारों को सजा हुई, मैं नहीं जानता, मैंने कभी नहीं सुना.पुलिस तो १० दिन में उसे पकड़ भी नहीं पाई.पता नहीं ऐसे लोगों को पुलिस खुद क्यूँ नहीं पकड़ पाती? यह लोग शान से अदालत के सामने चमचमाती गाड़ियों में उतारते हैं, और जमानत पर रिहा हो जाते हैं, अगर गलती से निचली अदालत १०-१२ साल तक जिरह के बाद इनको १-२ साल कि सज़ा सुना भी दे तो ये केस ऊपरी अदालत में ले जायेंगे.
फरियादी जो पहले ही अपना बेशकीमती खो चुके होते हैं, सालों अपना चैन सुकून पैसा लगा कर निराश होते रहते हैं, और इन रईसजादों के वकीलों के सामने घुटने टेक देते हैं.
मुझे लगता है अदालतों को आम जनता के केसों में देरी से कोई सरोकार नहीं.
यह आलम बदलने वाला नहीं, क्यूंकि हम तभी बाहर निकलेंगे जब हमारा कोई अपना कुचल दिया जाए...किसी गैर के कुचले जाने से हमे क्या???

मैं रात भर सोचता रहा कि इस व्यवस्था में इन्साफ का कोई दूसरा तरीका है ???
बेहतर है कि अगर कोई मेरे परिवार को कुचले तो बजाये अदालत का मुह देखने के मैं हिम्मत कर के खुद ही उसे गोली मार दूं
अदालतें कब ये समझेंगी कि इन मुद्दों  में इन्साफ पाने की मरती उम्मीद को जिन्दा रखने की  यातना, किसी क़त्ल की सज़ा से कहीं ज्यादा होती है...

आपके अखबार...

आज कल जिसे देखो, मुझे समझाने पे तुला है की देश में कितना भ्रष्टाचार है.सोशल साइट्स पर जहाँ देखो, किसी नेता की एडिटेड पिक्चर के नीचे पचास कमेन्ट दिखते हैं. भई मैं देश का पढ़ा लिखा नागरिक हूँ, मैं भी जानता हूँ कि देश के क्या हाल हैं, पर लोगों से गुजारिश है कि मुझे समझाने पर न तुल जाएँ, वो भी वह बातें जो हम वैसे भी समझते हैं.
सोशल साइट्स पारम्परिक मीडिया से कई मायने में बेहतर है, यहाँ विचारों का आदान प्रदान स्वच्छंदता से होता है, लेकिन दूसरों को मर्यादा का पाठ सिखाने वाले गुमनाम महापुरुषों से मेरा नम्र निवेदन है कि कृपया अपनी मर्यादा भंग न करें.
ऑरकुट और फेसबुक ने कई बिछड़े दोस्तों से मिलवाया, कई जिनकी के. जी. की ग्रुप फोटो निकल कर उनकी आज की सूरत से मिला के घंटों हंसा. मैं तकनीक का गुलाम हूँ कि नहीं, नहीं जानता, लेकिन दोस्तों का गुलाम तो हूँ ही.
सरकारों ने नया तरीका खोज लिया है जनता को फुसलाने का. जब जनता या इसके नुमाइंदे  कोई  मुद्दा उठाते हैं, सरकार बातचीत के नाम पर उसको महीनो लटकाती है, फिर बीच में किसी और नए मसले को हवा दे दी जाती है और पिछला मुद्दा भुला दिया जाता है. सरकार से इस से ज्यादा की उम्मीद है भी नहीं. इनके कदम इतने ठोस हैं की कभी उठते ही नहीं. गलती मेरी है, मुझे मुद्दे जल्दी भूल जाने की आदत पड़ गई है.कभी पिछले बरस के अखबार उठाऊँ तो समझ आये कि कितने मुद्दों ने एक पल को मेरी आत्मा कि झंझोर  दिया था, जिनकी अब मुझे याद भी नहीं. मैं ठहरा लाला आदमी, सो मैंने मुद्दे और अखबार रद्दी के भाव बेच दिए.
अब तो आप से उम्मीद लगाये बैठा हूँ... आपने तो अपने अखबार सम्हाल के रखे होंगे न...???

Sunday 6 May 2012

इबादत से परे...

इबादत से परे...
किसी काम से दो दिनों के लिए घर जाना पड़ा. पता नहीं वहां का घी शुद्ध घी क्यूँ लगता है, और यहाँ का घी डालडा ? खैर... मुझे तो ऐसे हजारों वहम हैं, जिन्हें न तो आप मानते हैं, न सरकार न सरकार के मुलाजिम.
वर्ण से कायस्थ हूँ. सो कायस्थों के एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने चला गया. पर इसका मतलब  ये नहीं कि मैं जातिवाद का समर्थक हूँ. बैठे बैठे मन में बात कौंधी कि क्या हमारे देश को और मंदिर मस्जिद चाहिए या और स्कूल और अस्पताल? भाई जितने खर्चे में अक्षरधाम सरीखे मंदिर बनते हैं, उतने में तो शायद एक राज्य के हर गाँव में स्कूल खोले जा सकते हैं. वैसे भी जहाँ देखता हूँ, हर गली नुक्कड़ में छोटे बड़े इबादतखाने दिख ही जाते हैं. शायद यही बात है कि मैं सूफियों की वकालत करता हूँ. इसमें कोई आडम्बर नहीं है.जिस दिन हमारे देश में पर्याप्त स्कूल कालेज हो जाएँ, उसके बाद हम इबादतखाने बनाते रहें तो क्या बुरा है?

वैसे बात छेड़ने का मुद्दा कुछ और था. हुआ यूँ कि मैंने गौर किया कि कार्यक्रम में सिर्फ बच्चे और बुज़ुर्ग थे. २० से ३० साल के नौजवान कोई भी नहीं. फिर समझ में आया कि नौजवान तो सारे भोपाल, दिल्ली बंगलौर में बस गए हैं. और जो बच्चे आज यहाँ हैं, वो भी कल बड़े शहरों को निकल जायेंगे. बचेंगे सिर्फ ये बुज़ुर्ग जिन्होंने अपनी जवानी हमे पढ़ाने में खपा दी. एक पल को लगा हमारे छोटे शहर धीरे धीरे बूढ़े जर्ज़र और वीरान हो रहे हैं. यहाँ के मुद्दों की लड़ाई के लिए काबिल नौजवान खून तो बाहर अपनी रोज़ी रोटी और पहचान की लड़ाई लड़ रहा है. यहाँ नल से नाले का पानी आता है. यहाँ सीमेंट की नयी सड़कें मकानों की आधी मंजिल से ऊंची बना दी जाती हैं. यहाँ हर गली एक कचराघर है. यहाँ बिना हेलमेट के १४ साल के लड़के शहर में रेस लगते हैं. यहाँ खिड़कियाँ कम और बेनर ग्लेक्स ज्यादा हैं. और इस सब को सुधारने वाली नौजवान पीढ़ी महानगरों में "लिव इन" की जिंदगी जी रही है.

शायद मैं जल्दी वापस आ जाऊं. आधी उम्र तो जी ही चूका हूँ. दिल्ली में न जिंदगी में सुकून है न मौत में.हादसे तक में  मरने पर सिर्फ १० सेकण्ड की क्लिप आती है टी वी पर. किसी को गम नहीं होता.यहाँ गाँव में मरने पर मेरे पीछे रोने वाले तो हैं. गाँव वापस इसीलिए नहीं आना चाहता कि मुझे कोई अच्छा मौका या धंधा समझ आ रहा है यहाँ, या फिर मुझे किसी पहचान कि तलाश है, बल्कि इसीलिए आना चाहता हूँ कि समझ चुका हूँ कि ये गाँव ही मेरा हिस्सा है, यही मेरी पहचान है...!!!

Thursday 3 May 2012

वो बुला ही लेता है...

गाहे बगाहे निज़ुद्दीन दरगाह पहुँच  जाता हूँ . यहाँ एक अजीब ओ गरीब सुकून पसरा हुआ है, जो अक्सर मुझे अपने पास खींच लेता है. मैं नहीं जानता कि इसकी वजह क्या है. शायद यहाँ दर्शन के कुछ पैसे नहीं लगते, या फिर खुसरो साहब बुला लेते हैं, या फिर पास ही सो रहे चाचा ग़ालिब का हुकुम आ जाता है. एक अलग ही अलमस्ती यहाँ वाकिफ रहती है. अपने इश्क ओ मोहब्बत से  इ रु ब रु रहता हूँ यहाँ .खुदी से बाहर निकल जाता हूँ. न रोज़ी का झगडा, न दुनिया के मसले.
"आई लव सूफिस्म;" आजकल का फैशन है. जिसे देखो सूफिस्म की दुकान लगाता है. कम ही लोग जानते होंगे कि सूफी शब्द सफ़ से आया है जिसका मतलब है एक ख़ास किस्म का खुरदुरा सस्ता ऊनी  कपडा. उस ज़माने में जो संत फ़कीर इसे पहनते थे, सूफी कहलाते थे, फ़ारसी में साफ का मतलब अक्ल होता है, सो उस लिहाज़ से भी ये "फिट" बैठता है.
यूँ तो "जींस" कि इजाद भी "काऊ बोय्स" के सस्ते कपडे की तौर पर हुई थी. मुझे अब भी याद है, किस तरह न्यूपोर्ट जींस अक्षय कुमार के इश्तेहारों की दम पे छोटे छोटे शहरों तक छा गया था. पर आज डेनीजन के ज़माने में इसके पर्याय बदल गए हैं.पहले के ज़माने में घर बार कि शर्ट (बुकशर्ट) एक ही थान के कपडे से बनती थी और बाप बेटे भाई भतीजे उनको ऐसे पहनते थे जैसे मेंच्स्टर यूनाइटेड के फैन इसकी जर्सी पेहेनते हैं.  सूफी संगीत पे रैप कि चादर चढ़ा दी गई है. सूफियों के कलाम गला दिए गए हैं. कितने ऐसे बाशिंदे होंगे, जो हक से खुद को सूफी कह सकते हैं. कितनो ने दिव्वाली पे नुक्कड़ के इस्त्री वाले को मिठाई खिलाई है, या ईद पर मोहल्ले में सेवइं बाटी हैं??
मैं बिक रहा हूँ,मेरे लोग बिक रहे हैं, क्यूंकि हमको खरीदने कि लत पड़ गई है.मुद्दा है कि जो हम खरीदते हैं, क्या हमको उसकी ज़रुरत है? आप की खरीदने की वहशत किसी का महीने भर का राशन चला सकती है. पर आपको इस से क्या? आपने भी पढाई के दिनों में एक रोटी में रात गुजारी है, और आज २५० का पिज्जा फेक देते हैं??
कभी गौर फरमाईयेगा कि अपनी मुश्किलों के दिनों में आप क्या थे और अप आज क्या बन गए हैं? अगर शर्म आ जाए, तो किसी गरीब को एक वक़्त का खाना खिला दीजियेगा, बड़ा सुकून मिलेगा.
एक बात और, मैं बात मुद्दे की करता हूँ, अपने शब्दों में, और कम शब्दों में, आप को समझ आए तो बेहतर, वरना खुदा रहम करे....

Wednesday 2 May 2012

पचास बरस का सफ़र...


उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति अपने आप में अनूठी ट्रेन है. दिल्ली से खजुराहो तक का सफ़र अपने आप में पचास बरस का सफ़र है. रेल्वे जब खजुराहो के जीर्णोद्धार हेतु लौह पथ गामिनी सेवा शुरू की तब शायद देश के सबसे खस्ताहाल स्लीपर के डिब्बे इस ट्रेन को दान किये. खैर ... मजे की बात ये है कि यह गाडी उत्तर प्रदेश के छोटे छोटे गाँव जैसे "कुल पहाड़" (कृपया गूगल करें) तो रूकती है, पर ग्वालियर चूंकि मध्य प्रदेश में है, सो वहां रुकना इसकी शान के खिलाफ है. लगता है अब रेल गाड़ियाँ भी भाजपा और बसपा का अंतर जानती हैं.किसी दिन ग्वालियर की कोई उन्माद भरी भीड़ इसे रोकेगी और इसकी सीटें तोड़ेगी जलाएगी तो ग्वालियर भी एक स्टॉप बना दिया जाएगा.देश में व्यवस्था परिवर्तन अब इसी तरह होते दिखते हैं.
झांसी तक ट्रेन द्रुतगति से चलती है. झाँसी के बाद लगता है डीजल का  मनमोहक (कृपया "क" को "न" न पढ़ें, डीजल इंजन आवाज़ करता है) और ट्रेन सिंगल रूट पर पासिंग  दे दे के निकलती है. यहाँ कोई अंग्रेजी में बात नहीं करता. डब्बे में बर्गर की जगह पूड़ी सब्जियों के पुलंदे खोले जाते हैं, इनका कम्पार्टमेंट में हाथ धोना स्वच्छता की निशानी है, बदतमीजी नहीं.चाइना मेड मोबाईल में फुल वोल्यूम पर  गाने का मज़ा ये रात भर लेंगे. या तो इन्हें कोसिये या इनके साथ मस्त हो लीजिये.
सुबह कुछ बुजुर्ग दिखते हैं, जिनको आज भी दातुन से प्यार है, बेचारे आज तक नहीं जान पाए कि उनके टूथ पेस्ट में नमक है या नहीं. गर्मी के दिनों में भी सुबह कि हवा एक सिरहन पैदा करती है, जंगली तोतों का एक झुण्ड ट्रेन से होड़ लगता आगे निकल जाता है. खेत अभी अभी फसलों के बोझ से मुक्त हुए हैं. हिरने और नीलगाय (हैरान मत होइए, ये यहाँ वैसे ही दिखती हैं जैसे दिल्ली में डीटीसी बसें ) कुलाचें भरती हैं. एक थ्री व्हीलर में 8-10 लोग  बैठ  के खजुराहो बस स्टैंड को रवाना होते हैं. रास्ते में कहीं बकरियां मिमियाती हैं, कहीं रहट चलते हैं, कहीं कोई गृहिणी कोई बुन्देली गीत गुनगुनाती है...काश उस मूर्खा को रैप का मतलब पता होता. मेरे हिसाब से तो उसका जीवन ही व्यर्थ है.
बस स्टैंड पहुच कर लकड़ी क़ी आंच वाले चूल्हे पे पकी चाय का लुत्फ़ उठाया.
यहाँ पचास बरस में कुछ नहीं बदला.यहाँ के नेता खुद को बदलते रह गए, और केंद्र सरकार अपनी छवि सुधारती रह गई. आज भी ये जगह देश के बड़े शहरों से पचास साल पीछे है...यहाँ किसान मजदूर भूखे मर मर के, पलायन कर कर के रिफ्यूजी हो गए, पर इनकी सुध किसी ने न ली
काश यह जगह कभी न बदले, बदलाव और प्रगति के नाम पे शहरों और उनके मिजाजों, उनकी तहजीबों क़ी कब्र मैंने भोपाल, लखनऊ और दिल्ली में खूब देखी हैं.ग़ालिब मियां क़ी मज़ार यूँ सिमट चुकी है कि बेचारे अब कब्र में भी पाँव फ़ैलाने को तरसते होंगे ..
मैं नहीं चाहता कि मेरा गाँव भी एक कब्रगाह बने....

Thursday 26 April 2012

प्यार खाँ की साइकिलें...


बात सन १९९० की है. मैं पहली में था.स्कूली जूतों की आदत अभी तक नहीं पड़ी थी. पैरों में जकड़न सी महसूस होती थी. और खेल के वक़्त कितनी चप्पलें खो दी, याद नहीं. तब क्लास में साइकिल आना शान की बात थी. प्यार खाँ १ रुपये घंटे पर साइकिल किराये पर देते थे. मन पसंद साइकिल के लिए घंटों बैठना पड़ता था.बड़ी साइकिलों की सीट तक हम पहुचते नहीं थे, सो डंडे को पकड़ के कैंची स्टाइल में चलाते रहते थे.
मध्य प्रदेश सरकार ने जब लड़कियों को साइकिल बाटी, तो लडकों ने क्या जुर्म किया था, मुझे पता नहीं. पर इस साइकिल से न सिर्फ लड़कियों को फायदा हुआ, बल्कि उनके माँ बाप जो टोकरियाँ सर पर रख कर शहर में सब्जियां बेचने आते थे, उनको भी साधन मिल गया.
आज हर दिन एक नई गाडी लॉन्च होती है, पर वोह पागलपन नहीं दिखता. साइकिल मेरा हिस्सा थी, कार मेरी शान है, मेरा दिखावा है. रीवा से जे पी समेंत तक की १९ किलोमीटर की साइकिल यात्रा किसी भी कार के सफ़र से ज्यादा सुहानी थी.
गाँव की जिंदगी आज भी सहज और सरल है, चंद ज़रूरतों में जिंदगी कट जाती है, वहां आज भी जॉकी और लेवाइस के बिना लोग जी रहे हैं और मस्त हैं. यहाँ एक माल में जितनी बिजली खप जाती है, उतने के आधे में वहां सारा शहर जी रहा है.
कार में बैठे बैठे आपने खेत तो देखे होंगे. बेल की ताज़ी रसीली लौकी आपके फ्रिज में साद रहे अनारों से ज्यादा स्वाद देती है. पर आप नंगे पैर खेतों में नहीं जा सकते ना. आपको अन्सैकिलोस्टोमियासिस का खतरा जो है.
आप सिंगापोर के ट्रिप पर हैं, मलेशिया आपको रटा हुआ है, पर आपने २४ घंटे गाँव में कभी बिताये हो, शायद ये ना हो पाया. गाँव में रहट हैं, बैल गाड़ियाँ हैं, गुड पक़ रहा है और धान पीटी जा रही है. ट्यूबवेळ का पानी आपको वाटर पार्क्स भुला देगा. फेसबुक पे अपलोड करने के लिए आपके एस एल आर कैमरे के लिए भी वहां बहुत कुछ है, अपनी औडोमोस क्रीम मत भूलियेगा...मियाँ प्यार खाँ आपका इंतज़ार कर रहे हैं...

Thursday 19 April 2012

चौराहे और बचपन...

दिल्ली में रहते एक अरसा हो गया है... नई दिल्ली अब थोडा पुरानी सी लगने लगी है. बेर सराय के चौराहे पर  भीख मांगने वाली लड़की अब गुलदस्ते बेचने लगी है. २-३ और भी बच्चे रहते हैं चौराहे पर करतब दिखाते हैं, शायद इस लड़की के भाई बहिन होंगे. बुन्देलखंडी में बतियाते हैं.
देश में शायद जितने ऐसे चौराहे होंगे, उस से ज्यादा एन जी ओ होंगे. फिर भी इन बच्चों की किस्मत में सड़क क्यूँ है, कोई नहीं जानता. कोई इन्हें तिरस्कार की नज़र से देखता है, कोई हमदर्दी और कोई हवस की नज़र से. बच्चों की नज़र से शायद ही कोई इन्हें देखता हो.
"साले हराम की उपज हैं सब, धंधा बना रखा है! हमसे ज्यादा तो ये कमा लेते हैं." एक मर्तबा मोटर साइकिल पर मेरे पीछे बैठे एक साहब ने फ़रमाया. मेरी जुबान गुस्ताख ठहरी."चलिए फिर एक चौराहे पर आप भी शुरू हो जाइये" निकल गया...
अगर ये धंधा भी है तो क्या आप अपने सात साल के बच्चे को दुनिया के किसी भी अच्छे से अच्छे धंधे में लगाना चाहेंगे? इन करतब दिखाते बच्चों में मुझे अक्सर जिम्नास्टिक्स के ओलंपिक मेडल के टूटे हुए टुकड़े नज़र आते हैं. देश में आज तक हुए घोटालों में से किसी एक का भी पैसे इन बच्चों पर लग गया होता तो इनका नसीब सुधर जाता.मैं भी इनका कसूरवार हूँ. आखिर सरकार मैंने भी चुनी है. पर गणतंत्र में आप अच्छे और बुरे में नहीं चुनते, आप चुनते हैं ज्यादा बुरे और कम बुरे में.
शायद इन्ही की तरह मैं भी भीख माँगा हूँ, काम की, पहचान की... मेरी जुर्रत इन दिनों कमज़ोर पड़ चली है अपनी रोज़ी रोटी के चक्कर में कि इनके लिए आवाज़ नहीं उठा सकता, वैसे भी चैरिटी बिगिन्स एट होम,सो मैं अपना घर बचाने में लगा हूँ ,
सरकार कानून बना सकती है, भीख माँगना और देना दोनों जुर्म बनाया जा सकता है, लेकिन फिर शायद इन बच्चों के पास जिस्म फरोशी के सिवाय और कोई धंधा नहीं बचेगा. ये तो अपनी मिटटी से उखड़े पौधे हैं, जो किस्मत और भुखमरी के तूफ़ान में अपने अपने गाँव से उठ कर दिल्ली आ गए हैं. इनके माँ बाप के पास दिल्ली का वोटर आई डी नहीं है, सो कोई दिल्ली वाला नेता इनकी सुध ले भी तो क्यूँ.
फिर भी शायद मई कुछ तो कर सकता था. इन्हें कुछ बता सकता था, कुछ समझा सकता था, कुछ दिला सकता था, कुछ खिला सकता था.
पर जिंदगी में ऐसी भलाई के ५ मिनट अब नहीं आते...
मैं शायद सालों बाद कुछ कर भी पाऊँ, लेकिन तब तक जितने बच्पनो का क़त्ल होगा, मैं कहीं न कहीं उन का एक हिस्सेदार रहूँगा.
आप बैठिये अपनी कार में, जब ये भीख मांगें, तो अपने काले शीशे चढ़ा लीजिये और देखिये इनकी तरफ ऐसे जैसे ये "गन्दी नाली के कीड़े हैं" और ये आपको कार में बंद ऐसे देखते हैं ऐसे जैसे कोई सर्कस में पिंजरे में बंद लंगूर को देखता है. फिर एक दिन इनमे से कोई किसी दिन बड़ा हो कर आप को किसी सूनसान सड़क पर देसी कट्टा दिखा के लूट ले तो ताज्जुब मत करियेगा.मेरी तरह आपने भी इनका बचपन लूटा है...
कंचे और तालाब...


ऑफिस में बैठे बैठे नज़र पेपरवेट पर पड़ी. मेरा बालसुलभ मन ख्याल बुनने लगा. उठा कर कंचे की तरह ऊँगली से निशाना साधने लगा. एक दो सहकर्मी बगल से व्यंगात्मक मुकान देते हुए निकल गए. एक उम्र हो गई कंचे खेले हुए, एक उम्र हो चली है बच्चों को कंचे खेलते देखे हुए. यूँ तो दिल्ली में रहते हुए ५ साल बीत गए, लेकिन यह शहर अपना सा नहीं लगता. नज़र ३ चीज़ें हमेशा ढूंढती रहती है- कंचे और पतंग की दुकाने, तालाब और संतरे की गोलियां.
यूँ तो मियाँ ग़ालिब को भी कंचों का बड़ा शौक था. कहते हैं कि उन्होंने उमराव से शादी ही सिर्फ इसीलिए की ताकि वो अपने कंचे वापस ले सकें जो उमराव ने उनसे जीत लिए थे. आज के ज़माने में कंचों की जगह प्ले स्टेसन ले चुका है , ऐसे में कोई किसी से अपना प्ले स्टेसन वापस लेने के लिए शादी कर ले, ऐसा तो होने से रहा. पतंगों का कारोबार भी अब पुरानी दिल्ली और बस्तियों तक सिमट गया है, पतंग कभी कभार उडती भी है तो कटी पतंग को लूटने की होड़ में दौड़ते बच्चे नहीं दिखते.
यही हाल संतरे की गोलियों का हुआ. दुकानों में केडबरी के ४० फ्लेवर मिल जायेंगे, पर अपनी पुरानी संतरे की गोली नहीं मिलती. एक ज़माना था कि जब १ रुपये की किस्मी बार खाना शान की बात होती थी. पर अब तो प्रेम की परभाषा ही डेरी मिल्क हो गई है, अब किसी से प्यार का इजहार करियेगा और डेरी मिल्क की जगह किस्मी बार दीजियेगा तो जवाब के लिए रुकियेगा मत.
तालाबों का भी एक अलग मज़ा था. गाँव में घर के गुसलखाने औरतों के लिए होते थे. मर्द सारे तालाब जाते थे. इसी बहाने हमको भी तैरना आ गया. बचपन में बड़े कमल तोड़े हैं तालाबों में. कमल की शाख को तोड़ कर उस से  पानी के अन्दर सांस ले कर भागना आज भी याद है. बात १९९० के दिनों की है. घर के गेंहू भी तालाब पर ही धुला करते थे. फिर निरमा, व्हील और लक्स मेरे तालाब खा गए. एक दशक बाद सरकार को सुध आई तो उन तालाबों का जीर्णोधार हुआ. पर अब वोह पुरानी फुदकती मछलियाँ कहाँ.
दिल्ली २१ शताब्दी का महानगर है, यहाँ सब कुछ विश्व स्तरीय है, ग्राम स्तरीय कुछ भी नहीं, यही वजह है कि शायद ये शहर कभी मेरा घर न बन सके...
प्रबंधन शास्त्र ने आज जिंदगी को जकड लिया है. फुर्सत और बे मतलब की चीज़ों के लिए कोई जगह ही नहीं बची है. फिर भी डायरी निकाली, और प्रिओरिटी लिस्ट में नोट किया की इस बार छुट्टियों में कंचे और किस्मी बार का लुत्फ़ जरूर उठाना है, तालाब किनारे लगे आम के पेढ की शाख जो तालाब की और बढ़ी हुई है, उस पर फिर से झूलते हुए तालाब में कूदना अभी बाकी है, क्या पता अगली दफा मैं और तालाब, दोनों रहें न रहें ...

Wednesday 18 April 2012

पट्टूकोट्टाइ की निबौलियाँ... !!!

किसी आकस्मात काम से पट्टूकोट्टाइ जाना तय हुआ. गूगल देवता ने रास्ता समझाया.टर्मिनल ३ से विमान चल दिया. खराब मौसम में विमान यूँ थर्राया कि एक बार तो छोटे शहरों से विलुप्त हो चुके "भट" की याद ताज़ा हो गई. खैर, चेन्नई से कुम्भ्कोनम की बस पकड़ी.

कबीर की नसीहत ”जो सोवत है सो खोवत है ” का बहिष्कार कर मैंने झपकी मार ली , और रास्ते के मंज़र से चूक गया . रा...त कुम्भ्कोनम में बिताई .

सुबह पता किया , तो पट्टूकोट्टाइ के दो रस्ते थे ,मैंने less traveled by चुना . बस धीरे धीरे भरने लगी . मूछ और लुंगी धारित पुरुष थे और अपनी सांवली काया को स्वर्ण से निखरती और मोगरे से सज्जित केशों वाली महिलाएं . मुझे समझते देर नहीं लगी की शायद भारत का आधा gold reserve तमिलनाडु में सुरक्षित है .खचाखच भरी बस में देश के एक प्रतिशत से भी कम लोगों को ढोने वाली मेट्रो की बड़ी याद आई. देश की ७० प्रतिशत ग्रामीण जनता को शायद ३-४ जन्मो बाद मेट्रो का सुख मिलेगा. बस घरों से मुह जोड़ के चलने वाली सड़क पे दौड़ पड़ी . पहली नज़र में यूँ लगा जैसे भोपाल से रायसेन वाली बस पे चढ़ गया हू. ड्राइवर ने जैसे ही गाने बजाने शुरू किये , मैं हर गाने में रहमान साहब की आत्मा ढूँढने लगा .

फिर गौर से बाहर झांकना शुरू किया . नारियल सूखे पत्तों की बारीक कारीगरी वाले घूंघट ओढ़े मुस्कुराती चाटें , साफ़ सुथरे घर ,आँगनो से गली में झांकते नारियल के पेढ़, जैसे दरबान आपकी बाँट जोह रहे हो . अपनी शिल्पकला पे इतराते मंदिरों के प्रवेश द्वार . चौकोर चमचमाते ताल , सब मंत्रमुग्ध कर चले .आज भी यहाँ कुरकुरे और लेस से ज्यादा मोगरे की दुकाने दिखती हैं .

अन्दर बस में लोग तमिल में बतिया रहे थे . किसी से कुछ पूछियेगा तो क्या पता चलेगा . आपको अपने अंग्रेजी ढंग से न बोल पाने पे झिझक और शर्म आती होगी , यहाँ लोगों को सिर्फ तमिल आने पे गर्व है . यहाँ तक कि बड़ी से बड़ी कम्पनियों ने भी अपने इश्तेहार तमिल में लगा रखे हैं . गाँव गाँव पिछले चुनाव कि बची हुई पालीथिन की पर्चियों ने गद्तंत्र में निहित प्रदूषण को बखूबी बयान किया .

यहाँ आम भी हैं और नीम भी , पर राज सिर्फ नारियल का चलता है . थोडा और आगे बाधा तो खेतों में नंगे पैर काम करती अधेढ़ उम्र की औरतें दिखी , शायद खेती का पूरे देश में आज भी वही हाल है . बिजली की १२ घंटे की कटौती ने सदी के सबसे बड़े king maker दिग्विजय सिंह के शासनकाल की याद दिलाई . खैर , देश तो सालों से ऐसा ही चल रहा है और ऐसे ही चलेगा , अग्नि ५ के परीक्षण के बाद यहाँ के ग्राम्य जीवन में क्या फर्क पड़ेगा , ये बात मेरी समझ से परे है .

२ घंटे का सफ़र ३ घंटे में पूरा हुआ . और दिल ख़ुशी से झूम रहा था . अगर आप गर्मी और पसीने की जंग लड़ सकते हैं , तो आपका स्वागत है . कभी फुर्सत मिले , तो निकल पड़िए किसी पट्टूकोट्टाइ को . कुंए के पानी और निबौलियों की मिठास आपको उम्र भर याद रहेगी ...!!