Thursday 19 April 2012

कंचे और तालाब...


ऑफिस में बैठे बैठे नज़र पेपरवेट पर पड़ी. मेरा बालसुलभ मन ख्याल बुनने लगा. उठा कर कंचे की तरह ऊँगली से निशाना साधने लगा. एक दो सहकर्मी बगल से व्यंगात्मक मुकान देते हुए निकल गए. एक उम्र हो गई कंचे खेले हुए, एक उम्र हो चली है बच्चों को कंचे खेलते देखे हुए. यूँ तो दिल्ली में रहते हुए ५ साल बीत गए, लेकिन यह शहर अपना सा नहीं लगता. नज़र ३ चीज़ें हमेशा ढूंढती रहती है- कंचे और पतंग की दुकाने, तालाब और संतरे की गोलियां.
यूँ तो मियाँ ग़ालिब को भी कंचों का बड़ा शौक था. कहते हैं कि उन्होंने उमराव से शादी ही सिर्फ इसीलिए की ताकि वो अपने कंचे वापस ले सकें जो उमराव ने उनसे जीत लिए थे. आज के ज़माने में कंचों की जगह प्ले स्टेसन ले चुका है , ऐसे में कोई किसी से अपना प्ले स्टेसन वापस लेने के लिए शादी कर ले, ऐसा तो होने से रहा. पतंगों का कारोबार भी अब पुरानी दिल्ली और बस्तियों तक सिमट गया है, पतंग कभी कभार उडती भी है तो कटी पतंग को लूटने की होड़ में दौड़ते बच्चे नहीं दिखते.
यही हाल संतरे की गोलियों का हुआ. दुकानों में केडबरी के ४० फ्लेवर मिल जायेंगे, पर अपनी पुरानी संतरे की गोली नहीं मिलती. एक ज़माना था कि जब १ रुपये की किस्मी बार खाना शान की बात होती थी. पर अब तो प्रेम की परभाषा ही डेरी मिल्क हो गई है, अब किसी से प्यार का इजहार करियेगा और डेरी मिल्क की जगह किस्मी बार दीजियेगा तो जवाब के लिए रुकियेगा मत.
तालाबों का भी एक अलग मज़ा था. गाँव में घर के गुसलखाने औरतों के लिए होते थे. मर्द सारे तालाब जाते थे. इसी बहाने हमको भी तैरना आ गया. बचपन में बड़े कमल तोड़े हैं तालाबों में. कमल की शाख को तोड़ कर उस से  पानी के अन्दर सांस ले कर भागना आज भी याद है. बात १९९० के दिनों की है. घर के गेंहू भी तालाब पर ही धुला करते थे. फिर निरमा, व्हील और लक्स मेरे तालाब खा गए. एक दशक बाद सरकार को सुध आई तो उन तालाबों का जीर्णोधार हुआ. पर अब वोह पुरानी फुदकती मछलियाँ कहाँ.
दिल्ली २१ शताब्दी का महानगर है, यहाँ सब कुछ विश्व स्तरीय है, ग्राम स्तरीय कुछ भी नहीं, यही वजह है कि शायद ये शहर कभी मेरा घर न बन सके...
प्रबंधन शास्त्र ने आज जिंदगी को जकड लिया है. फुर्सत और बे मतलब की चीज़ों के लिए कोई जगह ही नहीं बची है. फिर भी डायरी निकाली, और प्रिओरिटी लिस्ट में नोट किया की इस बार छुट्टियों में कंचे और किस्मी बार का लुत्फ़ जरूर उठाना है, तालाब किनारे लगे आम के पेढ की शाख जो तालाब की और बढ़ी हुई है, उस पर फिर से झूलते हुए तालाब में कूदना अभी बाकी है, क्या पता अगली दफा मैं और तालाब, दोनों रहें न रहें ...

No comments:

Post a Comment