Thursday 19 April 2012

चौराहे और बचपन...

दिल्ली में रहते एक अरसा हो गया है... नई दिल्ली अब थोडा पुरानी सी लगने लगी है. बेर सराय के चौराहे पर  भीख मांगने वाली लड़की अब गुलदस्ते बेचने लगी है. २-३ और भी बच्चे रहते हैं चौराहे पर करतब दिखाते हैं, शायद इस लड़की के भाई बहिन होंगे. बुन्देलखंडी में बतियाते हैं.
देश में शायद जितने ऐसे चौराहे होंगे, उस से ज्यादा एन जी ओ होंगे. फिर भी इन बच्चों की किस्मत में सड़क क्यूँ है, कोई नहीं जानता. कोई इन्हें तिरस्कार की नज़र से देखता है, कोई हमदर्दी और कोई हवस की नज़र से. बच्चों की नज़र से शायद ही कोई इन्हें देखता हो.
"साले हराम की उपज हैं सब, धंधा बना रखा है! हमसे ज्यादा तो ये कमा लेते हैं." एक मर्तबा मोटर साइकिल पर मेरे पीछे बैठे एक साहब ने फ़रमाया. मेरी जुबान गुस्ताख ठहरी."चलिए फिर एक चौराहे पर आप भी शुरू हो जाइये" निकल गया...
अगर ये धंधा भी है तो क्या आप अपने सात साल के बच्चे को दुनिया के किसी भी अच्छे से अच्छे धंधे में लगाना चाहेंगे? इन करतब दिखाते बच्चों में मुझे अक्सर जिम्नास्टिक्स के ओलंपिक मेडल के टूटे हुए टुकड़े नज़र आते हैं. देश में आज तक हुए घोटालों में से किसी एक का भी पैसे इन बच्चों पर लग गया होता तो इनका नसीब सुधर जाता.मैं भी इनका कसूरवार हूँ. आखिर सरकार मैंने भी चुनी है. पर गणतंत्र में आप अच्छे और बुरे में नहीं चुनते, आप चुनते हैं ज्यादा बुरे और कम बुरे में.
शायद इन्ही की तरह मैं भी भीख माँगा हूँ, काम की, पहचान की... मेरी जुर्रत इन दिनों कमज़ोर पड़ चली है अपनी रोज़ी रोटी के चक्कर में कि इनके लिए आवाज़ नहीं उठा सकता, वैसे भी चैरिटी बिगिन्स एट होम,सो मैं अपना घर बचाने में लगा हूँ ,
सरकार कानून बना सकती है, भीख माँगना और देना दोनों जुर्म बनाया जा सकता है, लेकिन फिर शायद इन बच्चों के पास जिस्म फरोशी के सिवाय और कोई धंधा नहीं बचेगा. ये तो अपनी मिटटी से उखड़े पौधे हैं, जो किस्मत और भुखमरी के तूफ़ान में अपने अपने गाँव से उठ कर दिल्ली आ गए हैं. इनके माँ बाप के पास दिल्ली का वोटर आई डी नहीं है, सो कोई दिल्ली वाला नेता इनकी सुध ले भी तो क्यूँ.
फिर भी शायद मई कुछ तो कर सकता था. इन्हें कुछ बता सकता था, कुछ समझा सकता था, कुछ दिला सकता था, कुछ खिला सकता था.
पर जिंदगी में ऐसी भलाई के ५ मिनट अब नहीं आते...
मैं शायद सालों बाद कुछ कर भी पाऊँ, लेकिन तब तक जितने बच्पनो का क़त्ल होगा, मैं कहीं न कहीं उन का एक हिस्सेदार रहूँगा.
आप बैठिये अपनी कार में, जब ये भीख मांगें, तो अपने काले शीशे चढ़ा लीजिये और देखिये इनकी तरफ ऐसे जैसे ये "गन्दी नाली के कीड़े हैं" और ये आपको कार में बंद ऐसे देखते हैं ऐसे जैसे कोई सर्कस में पिंजरे में बंद लंगूर को देखता है. फिर एक दिन इनमे से कोई किसी दिन बड़ा हो कर आप को किसी सूनसान सड़क पर देसी कट्टा दिखा के लूट ले तो ताज्जुब मत करियेगा.मेरी तरह आपने भी इनका बचपन लूटा है...

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