Thursday 3 May 2012

वो बुला ही लेता है...

गाहे बगाहे निज़ुद्दीन दरगाह पहुँच  जाता हूँ . यहाँ एक अजीब ओ गरीब सुकून पसरा हुआ है, जो अक्सर मुझे अपने पास खींच लेता है. मैं नहीं जानता कि इसकी वजह क्या है. शायद यहाँ दर्शन के कुछ पैसे नहीं लगते, या फिर खुसरो साहब बुला लेते हैं, या फिर पास ही सो रहे चाचा ग़ालिब का हुकुम आ जाता है. एक अलग ही अलमस्ती यहाँ वाकिफ रहती है. अपने इश्क ओ मोहब्बत से  इ रु ब रु रहता हूँ यहाँ .खुदी से बाहर निकल जाता हूँ. न रोज़ी का झगडा, न दुनिया के मसले.
"आई लव सूफिस्म;" आजकल का फैशन है. जिसे देखो सूफिस्म की दुकान लगाता है. कम ही लोग जानते होंगे कि सूफी शब्द सफ़ से आया है जिसका मतलब है एक ख़ास किस्म का खुरदुरा सस्ता ऊनी  कपडा. उस ज़माने में जो संत फ़कीर इसे पहनते थे, सूफी कहलाते थे, फ़ारसी में साफ का मतलब अक्ल होता है, सो उस लिहाज़ से भी ये "फिट" बैठता है.
यूँ तो "जींस" कि इजाद भी "काऊ बोय्स" के सस्ते कपडे की तौर पर हुई थी. मुझे अब भी याद है, किस तरह न्यूपोर्ट जींस अक्षय कुमार के इश्तेहारों की दम पे छोटे छोटे शहरों तक छा गया था. पर आज डेनीजन के ज़माने में इसके पर्याय बदल गए हैं.पहले के ज़माने में घर बार कि शर्ट (बुकशर्ट) एक ही थान के कपडे से बनती थी और बाप बेटे भाई भतीजे उनको ऐसे पहनते थे जैसे मेंच्स्टर यूनाइटेड के फैन इसकी जर्सी पेहेनते हैं.  सूफी संगीत पे रैप कि चादर चढ़ा दी गई है. सूफियों के कलाम गला दिए गए हैं. कितने ऐसे बाशिंदे होंगे, जो हक से खुद को सूफी कह सकते हैं. कितनो ने दिव्वाली पे नुक्कड़ के इस्त्री वाले को मिठाई खिलाई है, या ईद पर मोहल्ले में सेवइं बाटी हैं??
मैं बिक रहा हूँ,मेरे लोग बिक रहे हैं, क्यूंकि हमको खरीदने कि लत पड़ गई है.मुद्दा है कि जो हम खरीदते हैं, क्या हमको उसकी ज़रुरत है? आप की खरीदने की वहशत किसी का महीने भर का राशन चला सकती है. पर आपको इस से क्या? आपने भी पढाई के दिनों में एक रोटी में रात गुजारी है, और आज २५० का पिज्जा फेक देते हैं??
कभी गौर फरमाईयेगा कि अपनी मुश्किलों के दिनों में आप क्या थे और अप आज क्या बन गए हैं? अगर शर्म आ जाए, तो किसी गरीब को एक वक़्त का खाना खिला दीजियेगा, बड़ा सुकून मिलेगा.
एक बात और, मैं बात मुद्दे की करता हूँ, अपने शब्दों में, और कम शब्दों में, आप को समझ आए तो बेहतर, वरना खुदा रहम करे....

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