Wednesday 2 May 2012

पचास बरस का सफ़र...


उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति अपने आप में अनूठी ट्रेन है. दिल्ली से खजुराहो तक का सफ़र अपने आप में पचास बरस का सफ़र है. रेल्वे जब खजुराहो के जीर्णोद्धार हेतु लौह पथ गामिनी सेवा शुरू की तब शायद देश के सबसे खस्ताहाल स्लीपर के डिब्बे इस ट्रेन को दान किये. खैर ... मजे की बात ये है कि यह गाडी उत्तर प्रदेश के छोटे छोटे गाँव जैसे "कुल पहाड़" (कृपया गूगल करें) तो रूकती है, पर ग्वालियर चूंकि मध्य प्रदेश में है, सो वहां रुकना इसकी शान के खिलाफ है. लगता है अब रेल गाड़ियाँ भी भाजपा और बसपा का अंतर जानती हैं.किसी दिन ग्वालियर की कोई उन्माद भरी भीड़ इसे रोकेगी और इसकी सीटें तोड़ेगी जलाएगी तो ग्वालियर भी एक स्टॉप बना दिया जाएगा.देश में व्यवस्था परिवर्तन अब इसी तरह होते दिखते हैं.
झांसी तक ट्रेन द्रुतगति से चलती है. झाँसी के बाद लगता है डीजल का  मनमोहक (कृपया "क" को "न" न पढ़ें, डीजल इंजन आवाज़ करता है) और ट्रेन सिंगल रूट पर पासिंग  दे दे के निकलती है. यहाँ कोई अंग्रेजी में बात नहीं करता. डब्बे में बर्गर की जगह पूड़ी सब्जियों के पुलंदे खोले जाते हैं, इनका कम्पार्टमेंट में हाथ धोना स्वच्छता की निशानी है, बदतमीजी नहीं.चाइना मेड मोबाईल में फुल वोल्यूम पर  गाने का मज़ा ये रात भर लेंगे. या तो इन्हें कोसिये या इनके साथ मस्त हो लीजिये.
सुबह कुछ बुजुर्ग दिखते हैं, जिनको आज भी दातुन से प्यार है, बेचारे आज तक नहीं जान पाए कि उनके टूथ पेस्ट में नमक है या नहीं. गर्मी के दिनों में भी सुबह कि हवा एक सिरहन पैदा करती है, जंगली तोतों का एक झुण्ड ट्रेन से होड़ लगता आगे निकल जाता है. खेत अभी अभी फसलों के बोझ से मुक्त हुए हैं. हिरने और नीलगाय (हैरान मत होइए, ये यहाँ वैसे ही दिखती हैं जैसे दिल्ली में डीटीसी बसें ) कुलाचें भरती हैं. एक थ्री व्हीलर में 8-10 लोग  बैठ  के खजुराहो बस स्टैंड को रवाना होते हैं. रास्ते में कहीं बकरियां मिमियाती हैं, कहीं रहट चलते हैं, कहीं कोई गृहिणी कोई बुन्देली गीत गुनगुनाती है...काश उस मूर्खा को रैप का मतलब पता होता. मेरे हिसाब से तो उसका जीवन ही व्यर्थ है.
बस स्टैंड पहुच कर लकड़ी क़ी आंच वाले चूल्हे पे पकी चाय का लुत्फ़ उठाया.
यहाँ पचास बरस में कुछ नहीं बदला.यहाँ के नेता खुद को बदलते रह गए, और केंद्र सरकार अपनी छवि सुधारती रह गई. आज भी ये जगह देश के बड़े शहरों से पचास साल पीछे है...यहाँ किसान मजदूर भूखे मर मर के, पलायन कर कर के रिफ्यूजी हो गए, पर इनकी सुध किसी ने न ली
काश यह जगह कभी न बदले, बदलाव और प्रगति के नाम पे शहरों और उनके मिजाजों, उनकी तहजीबों क़ी कब्र मैंने भोपाल, लखनऊ और दिल्ली में खूब देखी हैं.ग़ालिब मियां क़ी मज़ार यूँ सिमट चुकी है कि बेचारे अब कब्र में भी पाँव फ़ैलाने को तरसते होंगे ..
मैं नहीं चाहता कि मेरा गाँव भी एक कब्रगाह बने....

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