Tuesday 19 February 2013

पोस्ट मोर्टम



"मुन्नाभाई एम् बी बी एस " पिक्चर का एक सीन बार बार याद आता है। वो सीन जिसमे माननीय मुन्नाभाई एक डेड बॉडी को डिसेक्ट करते वक्त बेहोश हो जाते हैं। मेरे कई डॉक्टर दोस्तों ने हँसते हुए बताया था कि पहले मर्तबा वो भी चक्कर खा गए थे या बेहोश हो गए थे। बाद में उनको धीरे धीरे इस प्रक्रिया की आदत पड़ गई।

15 फरवरी 2013 को जब लोग फेसबुक पर बिलेटेड हैप्पी वैलेंटाइन्स डे की शुभ कामनाएं भेज रहे थे,उस शाम श्रीमती अनुराधा शर्मा जी ने आत्महत्या कर ली। उनकी पुत्री कुमारी गीतिका शर्मा ने 5 अगस्त  2012 को आत्महत्या की थी। कुल 194 दिनों की मानसिक पीड़ा झेलने के बाद माँ ने उसी कमरे में पंखे से लटक कर जान दे दी जिस कमरे में बेटी ने आत्महत्या की थी। अपने सुसाइड नोट में वो अपने बेटे को सशक्त रहने का आशीर्वाद दे गई। किसी बाहुबली के द्वारा प्रताड़ित होने पर आत्महत्या की यह पहली घटना नहीं है।

मैं इंतज़ार करता रहा कि फेसबुक पर इस घटना की जन प्रतिक्रिया आएगी, लेकिन लगता है कि  मेरे डॉक्टर दोस्तों की तरह हम सबको इस तरह के जीवित पोस्ट मोर्टम की आदत पड़ गई है। 

दिल्ली गेंग रेप में सबने अपनी प्रतिक्रिया दी, तो इस मामले या इस तरह के अन्य मामलो में क्यूँ नहीं? शायद हम "सेलेक्टिव सरोकारी" हैं। हमको मतलब ही उस चीज़ से है, जिसमे शोर है, आवाज़ है। जहाँ प्रदर्शन है, धरना है, मीडिया है, वही आवाज़ सुनी जाती है , जहाँ ये सब न हो , वहां फेसबुक है। 

ये दिल्ली है। यहाँ जनतंत्र है, गणतंत्र है, मीडिया है, जागरूक जनता है, प्रदर्शनकारी लोग हैं, आवाज़ उठाने वाले छात्र हैं। जिस मुद्दे को तूल न मिले, उसे ये तूल दिला सकते हैं। देश में मुद्दे और घटनाएं इतनी हैं कि हर किसी की "इन टाइम " सुनवाई तो छोड़िये , सुनवाई ही होना यथार्थ से परे है। मुझे अभी तक आश्चर्य है, कि अनुराधा शर्मा जी की आत्महत्या पर प्रतिक्रिया स्तर नगण्य क्यूँ रहा।

बात महिला सशक्तिकरण की होती है, आवाज़ उठाने की होती है। मेरे गृह जिले पन्ना की उन गोंड युवतियों और महिलाओं का क्या, जिन्हें न अंग्रेजी आती है, न फेसबुक। जो बच्चा जनने के अगले दिन पेट पे कपडा बाँध कर मजदूरी को निकल पड़ती हैं। भई , कमाएंगी नहीं तो खायेंगी क्या। जिनके साथ ठेकेदारों द्वारा छेड़खानी आम बात है। रेप इत्यादि जहाँ कभी कानूनी रजिस्टरों तक नहीं पहुच पाते। इन गोंड महिलाओं को शायद अपने सच्चे हक़ के लिए अगले जनम तक का इंतज़ार करना पड़े। 


देश तरक्की कर रहा है, पर न्यायिक प्रक्रिया अभी भी धीमी है, मेरे पास आशावादी होने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं है, एक दिन लोग इतने जागरूक होंगे, इतने मर्मस्पर्शी होंगे कि हर मुद्दे को आवाज़ मिलेगी, बाहुबलियों के चलते ये आत्महत्याएं बंद होंगी।हम "सेलेक्टिव सरोकारी  " से "सर्व सरोकारी " बनेंगे।  हमको इन पोस्ट मोर्टम की आदत पड़  चुकी है, इस आदत से पीछा छुड़ाने तक मै यह बात दोहराता रहूँगा।  


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