Friday 4 January 2013

खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे ...

एक अजब सी खिसियाहट है ...

पिछले कई दिनों से लोगों की जागरूकता मुझे कनफुजिया रही है। अचानक लगने लगा था कि  जैसे मैं किसी नए देश में आ गया हूँ। जिसे देखो, देश हित की बातें कर रहा था, साल बीतते बीतते लोगों के मुद्दे भी बदल गए।फिर नए साल के साथ, सुर्खियाँ बदल गई, और क्रिकेट की हार सबसे बड़ा बवाल बन गई, अगर हम क्रिकेट में जीत जाते, तब भी यही हाल होना था, क्रिकेट है ही ऐसी चीज़। 

भई , तो असल मुद्दे पर आते हैं। ऐसा क्यूँ है की इस देश में कोई भी आन्दोलन ज्यादा दिन टिक नहीं पाता? क्यूँ एक बदलाव आते आते शून्य हो जाता है? क्यूँ परिवर्तन का सूर्य क्षितिज पर उदय हो कर वहीँ अस्त हो जाता है?

इस सवाल के जवाब कई सालों से तलाश रहा हूँ, कुछ उत्तर मिले हैं, सो आपसे बाँटने की जुर्रत कर रहा हूँ। यदि आप के पास कोई बेहतर विकल्प, उत्तर या सुझाव हो, तो मुझे ज़रूर बताइयेगा। हमारे देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है पापुलेशन प्रेशर। आप सोचोगे मैंने क्या शेखचिल्ली टाइप  बात कर दी? आन्दोलन की जान होते हैं देश के युवा। मुद्दा ये है कि मुझ जैसे युवा (मैं अब भी अपने आप को युवा समझने की गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहूँगा ) जो किसी आन्दोलन के ईंट पत्थर बन सकते हैं, वो रोजगार की लड़ाई में व्यस्त हैं। जनसँख्या विस्फोट के चलते हमारे देश में नौकरी और हीरा दोनों एक सामान बहुमूल्य हैं। पश्चिमी देशों के जैसे, हम छह   महीने काम करें और छह   महीने सैर, ऐसा तो हो नहीं सकता। नौकरी का भूत आन्दोलन में  लगातार बैठने नहीं देता। जो कालेज के बच्चे हैं, वो भी सेशनल  और सेमेस्टर एक्साम में फंस  गए।अब आन्दोलन के लिए मशीनों की तरह चाइना से आदमी तो इम्पोर्ट किये नहीं जा सकते।अंततः आन्दोलन या परिवर्तन उसी स्तिथि में आ जाते हैं, जहाँ भूखे भजन न होंय गोंपाला।

दूसरा मुद्दा है देशभक्ति या देश प्रेम। कहने को हम सब भारतीय हैं, लेकिन भारतीय होने से ऊपर हम सब की और भी कई पहचाने हैं। मसलम मैं एक हिन्दू लाला हूँ,मैं एक मध्य प्रदेश का गाँव वाला हूँ, दिल्ली वालों की नज़र में शायद बिहारी,और भारतीयों की नजर में, मैं सब कुछ हूँ सिवाय एक भारतीय होने के। अँगरेज़ हमको बाँट गए थे, और इसी फोर्मुले पे आज तक देश की राजनीति चल रही है। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, जनरल, ओ बी सी और एस सी एस टी, हिन्दू -मुसलमान; भारतीय होने का न कोई जिक्र है, न  कोई गर्व, न कोई मुद्दा। पंद्रह अगस्त और छब्बिस जनवरी त्यौहार कम और छुट्टियां ज्यादा माने जाते हैं। हमारी शिक्षा, हमारी परवरिश में भारतीय होने की महत्ता का कहीं पर भी प्रेक्टिकल एक्साम्प्ल नहीं मिलता; सो मुझे लगता है, कि  वक़्त आ गया है कि हम बाँटने की जगह जुड़ना सीखें।

तीसरा मुद्दा है, सरकार और जनतंत्र। यहाँ आधी जनता वोट नहीं देती और जो आधी  देती है, उसके आधे से कम में किसी नेता का चुनाव हो जाता है। वोटिंग के सिस्टम में बदलाव की जरूरत है। वोट टू  रिजेक्ट के साथ साथ और भी कई बदलावों की  ज़रूरत है। उम्मीद करता हूँ, मेरे रहते रहते ऑनलाइन वोटिंग का आप्शन आ जाएगा। शायद वोट डालने पर कुछ इन्सेंटिव  (कृपया इसे धन से ना जोड़ें ) या वोट न डालने पर कुछ ल़ोस  से जोड़ा जाए, तो हमारे जनतंत्र में काफी परिवर्तन हो सकता है। बदलते समय के साथ वोटिंग में कई परिवर्तन किये जा सकते हैं। बात ऐसे तरीकों की है, जो जनतंत्र में भागीदारी को और पारदर्शी बनायें। मुझे उम्मीद है कि  अगले दस साल टेक्नोलोजी के चलते ऐसा परिवर्तन संभव है।

आखिरी मुद्दा है हम और आप। कोईभी टेक्नोलोजी। कोई भी आन्दोलन ऐसा परिवर्तन नहीं ला सकता जो हम आप ला सकते हैं। महज आलस्य के चलते मुद्दों  को न टालें। यदि आप किसी मुद्दे से सरोकार रकते हैं, तॉ आवाज   ज़रूर उठायें। माना कि  कोई दूसरा आपके लिए लड़ रहा है, पर अगर आप साथ खड़े होंगे, तो शायद उसको बल मिल सके। माना आप की नौकरी है, असाइनमेंट्स  हैं, पर अगर आप एक दो घंटे निकाल घर से बाहर निकल अपनी आवाज़ उठाएंगे तो परिवर्तन को गति मिलेगी। अपनी नहीं तो  अपने प्रियजन की सोचिये, शायद आपके मुट्ठी भर प्रयास से उन्हें एक बेहतर कल मिल जाए। 

तब तक मैं ऐसे ही किसी खिसियानी बिल्ली की तरह आपके खम्भे नोचता  रहूँगा।

2 comments:

  1. Bohot samay k baad hindi me samsamayik vishay par laghu lekh padha. Achcha laga. Kuch man me kahne ko hua so likhta hun.

    Dusre mudde k liye me kehna/jodna chahunga ki aapas ka bhed bhav humare samaj ka abhinn ang raha hi jab se bharat me samaj ka vistar hua. Yahan na keval samajik nazarie apitu rajnaitik aur vyaktigat soch me sanshodhan/sudhar ki avashyakta hai.

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  2. Jan-sankhya? Ghareebi? Kya ye kaaran hai humaare is vyavhaar ke? Kya angrezo se pehle Mughalo ne, sthaniya shaashako ne apni "praja" ke aarthik haalat ko nazar andaaz nahi kiya? Koi etihaasik tathya jo is baat ko jhutla sake to main prasann ho jaunga ki kam se kam ye sirf angezi shashan tha jise humein rosh hona chahiye.

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